उदयपुर। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित वैज्ञानिकों केे 21 दिवसीय प्रशिक्षण के तहत जैविक आदानों के प्रायोगिक प्रशिक्षण के साथ-साथ अग्निहोत्र के प्राकृतिक खेती में उपयोग एवं प्रभाव पर चर्चा की गई। अग्निहोत्र आस-पास के वातावरण को शुद्ध करने तथा हानिकारक जीवाणुओं को कम करने के साथ-साथ मिटटी अग्निहोत्र भस्म का बीजोपचार तथा मृदा उपचार में भी काम में लिया जाता है। भारतीय संस्कृति में 2000 वर्ष पूर्व से ही अग्निहोत्र के उपयोग का वर्णन उल्लेखित है।
अग्निहोत्र में ताम्बे के पिरामिड आकृति के पात्र में सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय खेत में अलग-अलग स्थानों पर मंत्रों के साथ देशी गाय के कण्डों में साबूत चावलों को देसी घी के साथ मिलाकर आहुति दी जाती है।
इससे उत्सर्जित धुऐं में इथाइलिन ऑक्साइड, प्रोपाइलीन ऑक्साइड, फारमेल्डिहाइड ब्यूटाप्रोपायलेक्टोन एवं फार्मालीन आदि गैसें पायी जाती है जो वातावरण को शुद्ध करती है साथ ही व्यक्ति के मस्तिष्क पर सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं।
अग्निहोत्र के उपयोग के आस-पास की खरीफ तथा रबी की फसलों, सब्जी तथा फलों में कीट-रोग की कमी तथा वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है। अगर जैविक एवं प्राकृतिक खेती की विभिन्न विधियों के साथ अग्निहोत्र भी किया जाता है तो खेती तथा वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के कई अनुसंधान अलग-अलग जगह किये गये है।
इस प्रशिक्षण में देश के 10 राज्यों के 15 संस्थानों के 29 वैज्ञानिक भाग ले रहे है।