प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है किन्तु हमारे लालच की नहीं- राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
हमें नए आर्थिक विकास मॉडल की आवश्यकता क्यों है? ऐसे मॉडल की जो हरित आर्थिक विकास पर आधारित हो उसकी आवश्यकता इसलिए हैं चूँकि वर्तमान में लागू विकास मॉडल अधिक उपभोग,अधिक उत्पादन, संसाधनों के अत्यधिक दोहन और तेज वृद्धि पर आधारित हैक परंतु यह सभी मॉडल आर्थिक विकास को पर्यावरण संरक्षण के साथ जोड़ते हुए अर्थव्यवस्था को सुस्थिर विकास की ओर ले जाने में सफल नहीं हो पा रहे हैक विकासशील और अल्पविकसित देशों की जीडीपी वृद्धि आज भी प्राकृतिक संसाधनों दोहन से जुड़ी हैं।
हम देखते हैं कि तकनीक का विकास भी आर्थिक मॉडलों पर आधारित है जो कि इस बात पर केंद्रित है कि किस प्रकार से तेजी से विकास किया जाए क चाहे उस विकास की दौड़ में जनसंख्या का और समस्त जीव- जंतुओं का एक बड़ा भाग पीछे ही क्यों न छूट जाए क आज की इस विकास की अंधाधुंध दौड़ में हम उस मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं जहां पर हम यह देखते हैं कि अनाज का उत्पादन तेजी से बढ़ा है परंतु भूखमरी भी कम नहीं हुई है, तकनीक का विकास तेजी से हुआ है परंतु नवीन तकनीक बेरोजगारी की लागत पर विकास की ओर अग्रसर है, स्वास्थ्य विज्ञान में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं परंतु बेतरतीब जीवन शैली और खानपान की आदतों के कारण गंभीर बीमारियों की संख्या में भी इजाफा हुआ है, हम ऊर्जा के नए संसाधनों की ओर बढ़ रहे हैं परंतु आज भी परंपरागत संसाधनों पर निर्भरता कम नहीं हुई है या समाप्त नहीं हुई है, कृषि में हरित क्रांति और तकनीकी क्रांतियों के पश्चात भी कृषक आंदोलनों पर आमादा है।
वर्तमान में अर्थव्यवस्था के अध्ययन में यह आवश्यक है कि हरित भाग को जोड़ा जाए क चूंकि अर्थशास्त्र यह मानता है कि संसाधन सीमित हैं और सीमित संसाधनों के असीमित उपयोग हैं क बाजार मांग और पूर्ति के आधार पर कीमत का निर्धारण करते हैं और संपूर्ण अध्ययन इसी के इर्द-गिर्द चक्कर काटता हैक यहां हम जब प्रकृति के हरित भाग के महत्व को समाहित करते हैं तो अर्थशास्त्र की प्रकृति में आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है जैसे यदि वर्तमान बाजार में एक नए बाजार को समाहित कर लिया जाए जहां पर पुरानी वस्तुओं के बदले में नई वस्तुएं खरीदी जा सकती है और प्रत्येक पुरानी वस्तु को रिसायकल किया जाता है जिससे कि नए संसाधनों पर कम से कम दबाव पड़े क यह माना जाता है कि उपभोक्ता मात्र स्वकेन्द्रित विवेकशील न होकर सामुहिक विवेकशीलता के प्रति भी गंभीर हैं और वस्तुओं और सेवाओं के चुनाव में पर्यावरण को भी महत्व दे रहे हैं क उपभोक्ता यह जानता और मानता है कि उपभोग इस प्रकार से किया जाए कि पर्यावरण पर कम से कम दबाव पड़े और भावी पीढ़ी का भी ध्यान रखा जाए उपरोक्त वर्णित मान्यताओं के आधार पर नए बाजार को समाहित किया जाये तो उपभोक्ता अपनी पुरानी वस्तु देकर नई वस्तु खरीद सकता है और इस हेतु वह सजक है उसे पूरी जानकारी है संपूर्ण ज्ञान है क पर्यावरण के प्रति विवेकशील, सजग एवं सतर्क उपभोक्ता ही हरित आर्थिक विकास मॉडल का आधार है क साथ ही साथ में उत्पादक जोकि उत्पादन करते है वे भी इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि उन उपभोक्ताओं से उत्पाद की कीमत कम वसूल की जाए जो कि अपने पुराने उत्पाद के बदले में नए उत्पाद की मांग करते हैं क सरकारे भी पुराने उत्पाद के बदले नए उत्पाद लेनदेन की परंपरा को कराधान एवं सब्सिडी के माध्यम से प्रोत्साहित करती हैं।
हम उपभोक्ता और उत्पादक को विवेकशील और सजग कहेंगे जो वस्तुओं की मांग या पूर्ति करते समय यह ध्यान रखें कि वस्तुओं का उत्पादन और उपभोग इस प्रकार किया जाए जिससे कि सुस्थिर विकास हो, भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संसाधनों का दोहन किया जाए, संसाधनों में उन संसाधनों का अधिक उपयोग किया जाए जोकि मुफ्त में प्रकृति द्वारा दिए गए हैं और रिन्यूएबल है और उन संसाधनों का कम उपयोग किया जाए जोकि नॉन- रिन्यूएबल है क जिससे भावी पीढ़ी के लिए भी संसाधन उपलब्ध रहें और वह भी संसाधनों का उसी प्रकार आनंद उठा पाए जिस प्रकार वर्तमान पीढ़ी उठा रही है क साथ ही साथ उपभोक्ता और उत्पादक तभी विवेकशील और सजग कहलाएगा जब वह अपने साथ-साथ यह भी ध्यान रखें कि इस जगत में जो भी संसाधन उपलब्ध है और जो भी स्पीशीज यहां निवासरत है वे सभी किसी न किसी कारण से यहां रह रही हैं और उनका होना प्रकृति के और मानव के सुस्थिर विकास के लिए आवश्यक है क जैव विविधता और समस्त मानव जाति और अन्य जीव जंतु के अस्तित्व पर भी अर्थव्यवस्था को ध्यान देने की आवश्यकता है क वर्तमान में आर्थिक मॉडल सिर्फ मानव कल्याण के विषय में बात करते हैं जरूरत इस बात की है कि मानव कल्याण के साथ-साथ हम पूरे विश्व के सार्वभौमिक कल्याण की बात करें, जिसमें सबसे छोटे जीव से लेकर सबसे बड़े जीव पूरी मानव जाति और जैव विविधता शामिल हो।
अर्थशास्त्र संसाधनों की सीमितता पर आधारित है परंतु जब हम यह मान्यता लेते है कि उपभोक्ता और उत्पादक दोनों ही विवेकशील होने के साथ-साथ सजग भी हैं और सम्पूर्ण जगत के सहअस्तित्व को स्वीकार करते है। तो हमें एक नवीन आर्थिक व्यवस्था के दर्शन होते है जहां संसाधनों को अधिक से अधिक रिसायकल करते हुए पुन: उपयोग सुनिश्चित किया जाता है और नॉन रिसायकल स्त्रोतों को रिसायकल स्त्रोतों से प्रतिस्थापित किया जाता है जिससे नवीन संसाधनों के दोहन पर दबाव कम होता है।
इस प्रकार की अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं जहां पर समस्त तंत्र यह प्रयास करता है कि रिसायकल कर संसाधनों पर कम से कम दबाव डाला जाए और वस्तुओं का बार-बार उपयोग किया जाए। जहां तक संभव हो तो संसाधनों के सीमित होने की मान्यता लेने की आवश्यकता नहीं रहती है और संसाधन हमें असीमित मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। यही प्रकृति की असीमता एवं संसाधनों की असीमितता का आधार हैं। भौतिकी विज्ञान में संरक्षण सिद्धांत भी यही दशार्ता हैं कि इस जगत में संपूर्ण द्रव्य-ऊर्जा संरक्षित रहती हैं। अत: यह कहना कि संसाधन सीमित हैं, सही नहीं है वे मात्र अपना रूप बदल सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उनके रूप को पुन: सुधार कर उन्हें उपयोग में लिया जाए क यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम एक बॉक्स में रखी कुछ गेंदों में से एक गेंद को निकाले और पुन: अंदर डाल दे तो हम अनंत चयन कर अनंत परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। यहां पर गेंदे सीमित होते हुए भी हमारे चयन असीमित हो जाते हैं। यही प्रकृति का शुन्य से विभाजन का नियम हैं। मानव-प्रकृति-नेटवर्क को पुनर्स्थापित करने के लिए पूरी मानव जाति को इसे समझना होगा और इसी आधार पर अपनी पसंद में व्यावहारिक परिवर्तन करते हुए सतत विकास के पथ पर आगे बढ़ना होगा।
महात्मा गांधीजी की 150 वी जयंती पर यदि समस्त देशवासी अपने व्यवहार में वो बदलाव लाने को तैयार हो, जो वे दुनिया में देखना चाहते है तो निश्चित ही अनंत परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
पुनीत शर्मा,
संयुक्त निदेशक, आर्थिक एवं सांख्यिकी, उदयपुर