उदयपुर, 18 अक्टूबर। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में शुक्रवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि भगवान महावीर ने दस रूचियों में तीसरी रूचि आज्ञा रूचि बतलाई है। जो स्वभाव से ऋजु, विनम्र, भद्रिक परिणामी होते हैं, उन्हीं में आज्ञा रूचि जगती है। जो मन की मानते हैं वे अज्ञानी एवं जो मन को मनाते हैं वे ज्ञानी होते हैं। भद्र परिणामी आज्ञा मानने में प्रवीण होते हैं। मन को भोग व योगी को योग एवं चित्तवृत्तियों का निरोध अच्छा लगता है। इसलिए भोगी का वर्तमान रोगी होना है व भविष्य दुर्गति है जबकि योगी का वर्तमान निरोगी एवं भविष्य सद्गति है। अगर बच्चा रोता है तो मां कहती है-रो मत, गुरू शिष्य से कहते हैं-सो मत एवं परमात्मा कहते हैं दुर्लभ जीवन खो मत। जीवन में मां, गुरू एवं परमात्मा की महत्ता को समझें। गुरू ही बतलाते हैं कि राग, द्वेष, अज्ञान एवं मोह का त्याग करें तभी स्वभाव ऋजु एवं परिणाम भद्रिक बनेंगे। ऐसा होने पर आज्ञा में रूचि पैदा होती है। जो जन आज्ञा को प्राण, प्रमाण व सर्वस्व मानते हैं वे ही आज्ञा रूचि के पालक बनते हैं। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने ठाणांग सूत्र का हवाला देते हुए फरमाया कि स्वस्थता की दृष्टि से भोजन संबंधी कुछ नियम, मन, व्यवहार व स्वाध्याय को लक्ष्य करते हुए बतलाए गए हैं। भोजन यथासमय, कड़ाके की भूख लगने पर उणोदरी (भूख से कम खाना) तप के साथ करना चाहिए। भोजन के एक घंटे बाद पानी पियें। अपच, अजीर्ण होने पर पेट को व शरीर को विश्राम दें। भोजन में शक्कर, नमक, मैदा, सोडा आदि श्वेत चीजें कम लें। दो भोजन के बीच 6 घंटे का अंतराल रहना चाहिए। पहला सुख निरोगी काया है, यह सदैव याद रखें। श्रद्धेय श्री विशालप्रिय जी म.सा. ने कहा कि उभयकाल प्रतिक्रमण करने वाला निकट में मोक्षगामी बन सकता है।
जो मन की मानते हैं वे अज्ञानी एवं जो मन को मनाते हैं वे ज्ञानी होते हैं : आचार्य विजयराज
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