मामा शकुनि के नाम से जो विश्व प्रसिद्ध है गुफी पैंटल की जीवन व संघर्षों से जुड़ी यात्रा

हाल ही में हमने फिल्म और टी वी जगत के एक मशहूर सितारे को खोया है जिनकी चाल और हावभाव हमारे दिलों में बैठे हुए है महाभारत सीरियल में मामा शकुनि के नाम से जो विश्व प्रसिद्ध है श्री गुफी पैंटल साहब जिनका जीवन भी कई संघर्षों से गुंथा हुआ है आइए उनकी जीवन यात्रा को महसूस करते है नजदीक से को श्री गुफी पेंटल जी का जन्म 4 अक्टूबर 1944 हुआ ,वे मध्यम वर्गीय पंजाबी परिवार के बड़े बेटे थे आपके पिताजी श्री गुरुचरण सिंह पेंटल लाहौर (जो अब पाकिस्तान में है ) में थे। ये तब की बात है जब हमारा देश हिंदुस्तान कहलाता था यानी अब तक बंटवारा नहीं हुआ था।

आपके पिताजी लाहौर फिल्म इंडस्ट्री में बतौर केमरा मेन कार्यरत थे। आप मुश्किल से तीन वर्ष के थे जिंदगी अच्छी चल रही थी के अचानक विभाजन के दंगे हो गये।
उन्हों के शब्दों में ” मुझे तो केवल इतना याद है कि अपने घर की छत पर से जलते हुए मकानों को देखता तो तोतली बोली में “आद लदी आद लदी “(आग लगी )चिल्लाने लगता। मेरी बीजी मुझे अपने सीने से लगाती और फौरन नीचे कमरे में ले आती। ”

अब तक शायद ये पता चल चुका था कि देश का विभाजन निश्चित है ,आगजनी दंगों और लूटमार के दौरान …गली सड़कों में लाशों के बीच से निकलकर हमें फौजी ट्रकों में लोड करके अमृतसर होते हुए तरणतारण मेरे ननिहाल उतार दिया। अचानक हम निवासी से रिफ्यूजी हो गये। बीजी कि तबियत उन दिनों ठीक नहीं थी उन्होंने मेरे छोटे भाई गुड्डे के जन्म दिया। तरनतारन से मेरे पिता बीजी और हम दोनों भाइयों को लेकर दिल्ली आये जहाँ मेरे दादा कश्मीरा सिंह जी थे। वे इंग्लिश और फारसी के अपने जमाने में जानेमाने प्रोफेसर और प्रिंसिपल थे। मुंबई के खालसा कॉलेज के भी फाउंडर प्रिंसिपल थे।

मेरे डैडी बिचारे दिनरात मेहनत करते पर भगवान जाने क्यूँ वो बात बन ना पाई जो लाहौर में थी ….शायद एक बार जो ऐसी परिस्थिति का शिकार हो जाता है तो उसे फिर पांव जमाने के लिए कितने पापड़ बेलने पढ़ते है मेरे डैडी सीधे साधे भोले स्वभाव के व्यक्ति थे दुनिया की चतुराई से नावाकिफ
ये तो शुक्र हे की सर के ऊपर दादाजी की दी हुई छत थी जिसने हमारी इज्जत पर दोशाला ओढ़ा रखा था।

सबके सब रिश्तेदार अच्छे खासे संपन्न थे। और जब अपने यही लोग हमें अपने उतारे हुए कपड़े पहनने को देते तो मन में एक हीन भावना जन्म लेती और झकझोर कर रखती। अंदर ही अंदर हम सैकड़ों लड़ाईयां खुद से ही लड़ते। इतने दुख और तकलीफों के बावजूद मेने कभी अपनी बीजी के चेहरे पर दुख नहीं देखा वे हमेशा वाहेगुरु का शुक्रिया ही करती थी।

मैं हाई स्कूल करके एयर फोर्स में पायलट बनना चाहता था या फिल्मों में काम करना चाहता था पर बुजुर्गों की सलाह पर जमशेदपुर टाटा इंस्टीट्यूट चले जाना पड़ा।

हमारे हॉस्टल के कमरा नंबर 1 में रत्न टाटा भी थे जो NASA (USA) के बाद टाटा आये थे ,उनके साथ मेरी अच्छी यारी हो गयी थी उनकी सिल्वर रंग की कन्वर्टिबल प्लेमोथ गाड़ी वो सिर्फ मुझे ही चलाने देते थे। वो साठ का दशक …वो हिन्दी फिल्मों का ब्लेक एंड व्हाइट से कलर होना …. हॉस्टल के हर रूम पर एक से एक हीरोइन जैसे साधना ,नूतन ,मधुबाला ,सायरा की खूबसूरत तस्वीरें लगाई होती थी लड़कों ने …वाह वो कंप्लीट बेफिक्री के दिन।

मेरी इंजीनियरिंग पूरी हुई डिप्लोमा मिला और हाथों हाथ टाटा से अपॉइंटमेंट भी मिल गयी। नौकरी मिलन के बाद हॉस्टल छूट गया और हम फिर से नये लोगो के बीच आ गये मुझे याद है हम पांच बड़े अच्छे दोस्त वन गये थे लोग हमें पांच पांडव कहके पुकारा करते क्यूंकि हम पांचों अलग अलग राज्यों से थे श्याम प्रताप (नेपाल )जॉन डेविड (इलाहाबाद )अय्यर (तमिलनाड़ु) नवाब नियाज़ अहमद (पटना ) और मैं पंजाबी।

सन 1968 में टेल्को जमशेदपुर से मेरी ट्रांसफर मुंबई हो गयी दोस्तों को छोड़ कर आगे बढ़ना बड़ा दुखी करने वाला पल था लेकिन जिंदगी तो आगे बढ़नी ही है। मेरे भाई को भी फिल्म इंडस्ट्री में काम मिल गया और हम जुहू स्कीम में आ गये मेरा विवाह हो चुका था और हमारे घर पुत्र हेरी पेंटल ने जन्म लिया।

कुछ सालों बाद मेरे अंदर फिल्मी शौक ने उछाल मारी और मेने इंजीनियरिंग छोड़ दी शो बिजनेस की तरफ रुख किया मॉडलिंग से शुरुआत की मुश्किल से 200 रुपये मेहनताना मिलता वो भी कई कई बार छ महीनों बाद मिला करती थी। मुझे याद है कि कभी एड फिल्मों के दफ्तरों के चक्कर कभी डॉक्यूमेंट्री मेकर के ….खूब स्ट्रगल किया …..जूते घिस जाते थे …और आपको काम देने वाला आपको आपके चेहरे से लेकर जूते तक ताड़ता हे ..तब कहीं काम देता है ..बसों में जाकर वो स्ट्रगल वो पसीना …सोचिये जो शक्ल से मजदूर लगे उसे हीरो कौन बनता .????ये फिल्म इंडस्ट्री भी अंडरवल्र्ड की तरह वन वे ट्राफिक हे यहा आने के तो बहुत रास्ते हे पर जाने का एक भी नहीं ….तो यहा से मेरी शुरुआत हुई ग्लेमर और ग्लिटज की चकाचौंध कर देने वाली इस अध्भुत दुनिया की।

Lबड़ी स्किन पर असिस्टेंस डायरेक्टर के साठ छोटे बड़े करेक्टर भी मैं करने लगा था। बहरहाल यू ही चलते चलते 1978 में जब रवि चोपड़ा ‘दी बर्निंग ट्रेन’बना रहे थे तो बतौर असिस्टेंट तो मेने काम किया ही साथ में मेने उनके विज्ञापन विभाग में भी सहयोगी की नौकरी कर ली थी।

मैं खुद को खुशनसीब मानता हूँ कि मैंने डॉ बी आर चोपड़ा ,पंडित नरेंद्र शर्मा ,हसन कमाल ,सतीश भटनागर ,धर्मवीर भारती और विकास कपूर के साथ काम किया।

सन 1986-1990 का एक दौर चला जिसमें डॉ बी आर चोपड़ा जी ने महाभारत धारावाहिक बनाने की सोच जगी ,उन्होंने मुझे बतौर कास्टिंग डायरेक्टर नियुक्त किया और तब के समय में 20000 से ज्यादा ऑडिशन लेकर एक एक कलाकार को मेरे द्वारा चुना गया। सुदेश बेरी ,शरत सक्सेना ,कंवरजीत पेंटल और अन्य कलाकारों को पहली बार किसी धार्मिक धारावाहिक से जुड़ने का मौका मिला ,पुनीत इस्सर जो उस समय कुली फिल्म में अमिताभ बच्चन को चोट लगने कर कारण कामों से वंचित थे उन्हें दुर्योधन की भूमिका दी गयी। नीतीश भारद्वाज जो विदुर बनने आये थे पर शुद्ध हिन्दी और संस्कृत के कारण कृष्ण की भूमिका में दिखे ये सब मोती ईश्वर की दया से जुड़े और इस महानतम धारावाहिक में मुझे गांधार नरेश शकुनि बनने का सौभाग्य मिला।
मैं उदयपुर से रोहित बंसल
मामा श्री गुफी पेंटल का हमेशा प्रिय और चहेता भांजा रहा ये मेरा सौभाग्य है कि उनका स्नेह मेरे परिवार पर अनवरत रहा
उनका स्नेह ,प्रेम आशीर्वाद हमेशा मुझे बराबर मिलता रहा। मैं भी छोटा सा कवि और मामा श्री एक बड़े कवि ,लेखक और व्यंगकार रहे तो हमारी हमेशा महाभारत की शूटिंग को लेकर घंटों फोन पर चर्चा हुआ करती थी।
मामा अक्सर बताया करते थे कि शूटिंग केसे होती थी ,तीर कैसे चलते थे ,पितामह की बाणों की शय्या कैसे बनाई थी। युद्ध कैसे हूँ करते थे और अन्य कई बातें।
मामा श्री मुझे हमेशा प्रिय भांजे के स्वर से संबोधित करते थे कभी रोहित तो सुनने को मिला ही नहीं। वर्ष 2020 में मेरे जन्मदिन पर उन्होंने अपनी पुस्तक “कुछ लकीरें टेढ़ी मेडी सी “भेंट और आशीर्वाद स्वरूप भेजी। वर्ष 2021 में मेरे जन्मदिन पर उन्होंने अपने वो पासे मुझे भेंट स्वरूप भेजे जिनसे उन्होंने धारावाहिक में महाभारत रचाई थी और साथ में पत्र भी भेजा कि मैं अपनी सैना तुम्हारे लिए भेज रहा हूँ ये तुम्हें हर बुरी नजर से बचाएगी।

मामा जी से मेरी अंतिम मुलाकात दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में हुई थी जहाँ “महाभारत द एपिक टेल” शो का मंचन होना था। उन्होंने मुझे अपने साथ अपने कमरे में रुकवाया मेरे साथ नाश्ता ,लंच सब एक प्लेट में किया जबकि शायद मैं उनके और उनकी शख्शियत के सामने कुछ भी नहीं था। पर मामा श्री का सरलपन इतना था कि उन्होंने कभी अपना पराया छोटा बड़ा नहीं समझा वे इंसान को उसकी मेहनत को सलाम करते थे।क्यूंकि गरीबी ,लोगो के ताने ,और बुरा वक्त सब उन्होंने चखा और देखा है। आज वे बेशक इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनके सिद्धांत ,उनकी दी हुई सीख यदि कोइ अपनाना चाहे तो उसका जीवन सफलता की ऊंचाई को छू सकता है।

लेखक
रोहित बंसल

By Udaipurviews

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