उदयपुर, 26 जुलाई। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में शुक्रवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि ज्ञान दो प्रकार का होता है, पहला-व्यावहारिक ज्ञान जो हमें विद्यालयों आदि शैक्षणिक संस्थानों व शिक्षकों आदि से प्राप्त होता है और दूसरा-पारमार्थिक ज्ञान जो हमें साधु-संतों के सत्संग एवं सतत स्वाध्याय आदि से प्राप्त होता है। सत्संग हमारे ज्ञान को परिष्कृत करता है। इस परिष्कृत ज्ञान से मिलने वाला पारमार्थिक ज्ञान संसार के परिभ्रमण को सीमित करने में सक्षम बनाता है। ज्ञान प्राप्ति के तीन आलम्बन हैं-मनन करना, इससे सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है, अनुसरण करना अच्छे कार्यों के अनुसरण से ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा अनुभवजन्य ज्ञान। यह ज्ञान बहुत कुछ सीखा देता है इसलिए रामायण में राम ने लक्ष्मण को रावण से अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने फरमाया कि भाषा की शिष्टता हमारे चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है। भाषा से व्यक्ति के स्तर का पता चलता है। भाषा सुधरी हुई हो तो मनुष्य का भव व भाव दोनों सुधर जाएंगे। पाश्चात्य संस्कृति में तीन शब्द प्रचलित हैं-सॉरी, थैंक्यू और वेरी गुड। भारतीय संस्कृति में भी क्षमा का बड़ा महत्व व प्रचलन है। यहां भी सत्कार किया जाता है। राजस्थान में तो केसरिया बालम पधारो म्हारे देश गीत बड़ा प्रसिद्ध है। अच्छा सोचना, अच्छा बोलना व अच्छा काम करने वाले को बहुत अच्छा कहना ये हमारे शिष्टाचार को प्रशंसनीय, अनुमोदनीय व अनुकरणीय बनाता है। श्रीसंघ अध्यक्ष इंदर सिंह मेहता ने बताया कि झीलों की नगरी धर्म नगरी बन गई है व देशभर से अतिथियों का आगमन जारी है। प्रतिदिन आयम्बिल, एकासन, उपवास, बेला, तेला से लेकर अट्ठाई तप कई श्रावक-श्राविकाओं द्वारा किया जा रहा है। वहीं प्रवचन पश्चात श्रावक-श्राविकाओं से प्रश्नोत्तर भी किए जा रहे हैं और सही उत्तर देने वालों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है।
जीवन में सिर्फ जानकारी ही नहीं समझदारी भी होनी जरूरी : निरागरत्न
उदयपुर, 26 जुलाई। श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ के तत्वावधान में मालदास स्ट्रीट स्थित आराधना भवन में चातुर्मास कर रहे पंन्यास प्रवर निरागरत्न जी म.सा. ने शुक्रवार को धर्मसभा में कहा कि विनय का कार्य अहं को तोड़ना है। जो साधु गुरू की आज्ञा मानते है उनकी सद्गति सुनिश्चित होती है, गुरू के इशारे अनुरूप जीने वाले साधु की परम गति होती है और स्वयं की इच्छानुसार जीवन जीने वाले साधु की दुर्गति होती है। अध्यात्म जगत में गुरू से छिपाया हुआ जीवन अनंत संसार को बढ़ा देता है। जीवन में सिर्फ जानकारी ही नहीं समझदारी भी होनी जरूरी है, समझदारी में हृदर का स्तर है। चार चीज दुर्लभ है मानव भव, जिनवाणी का श्रवण, जिनवचन में श्रद्धा और संयम में पुरूषार्थ। हम संकल्प करें कि निमित्त या प्रलोभन के सामने झुकेंगे नहीं, हम स्वतंत्रता का दिन मनाते है पर हमारे दोषों को दूर करके स्वतंत्र बनने का दिन मनाया क्या? इस हेतु सभी नहीं तो दो, चार, पांच दोषों से तो स्वतंत्र होने का प्रयास करेंगे ही।