उदयपुर, 5 जून। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर आईसीआईसीआई फाउंडेशन द्वारा सोमवार को उदयपुर के देवला गाँव स्थित फ़ूड प्रोसेसिंग सेंटर में वृक्षारोपण किया गया। इस कार्यक्रम में स्थानीय लोगों के साथ राजिविका की महिलाओं के सक्रिय भागीदारी रही। साथ ही विश्व पर्यावरण दिवस की इस बार की थीम प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान पर चर्चा की गई। कार्यक्रम में आईसीआईसीआई फाउंडेशन के विजेंद्र कुमार एवं अभिषेक पालीवाल ने विचार रखे। कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने पर्यावरण की रक्षा हेतु प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करने का संकल्प लिया।
विश्व पर्यावरण दिवस पर संगोष्ठी
उदयपुर, 5 जून। विश्व पर्यावरण दिवस पर इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानर इंडिया उदयपुर सेंटर एवं नगर नियोजन विभाग के संयुक्त तत्वाधान में विश्व पर्यावरण दिवस संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
सेवानिवृत्त अतिरिक्त मुख्य नगर नियोजक सतीश श्रीमाली ने कहा कि उदयपुर शहर को स्वस्थ एवं सुंदर बनाने के लिए अधिक से अधिक स्थानीय छायादार एवं फलदार पेड़ लगाए जाने चाहिए जिससे पक्षियों को छाया एवं खाने के लिए फल उपलब्ध हो सकें। उदयपुर को स्वस्थ, सुंदर एवं प्रदूषण मुक्त रखने के लिए उप नगर नियोजक नरहरी पंवार, वंदना चौहान एवं सर्वेश्वर व्यास ने भी विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर इंस्टिट्यूट ऑफ टाउन प्लानर इंडिया राजस्थान रीजन चैप्टर एवं नगर नियोजन विभाग कैंपस में फलदार आम के पेड़ एवं बेलपत्र पेड़ लगाए गए।
पर्यावरण संरक्षण : मेवाड़ की वैश्विक चेतना
उदयपुर, 5 जून। पर्यावरण की दृष्टि से मेवाड़ में महाराणा प्रताप के काल में जिस नीति पर विचार हुआ, वह वैश्विक दृष्टिकोण वाली है क्योंकि उसमें हवा, पानी की स्वच्छता पर जोर दिया गया। साथ ही जलस्रोतों के विकास और वन क्षेत्र के संरक्षण को कठोरता से लागू किया गया। महाराणा प्रताप से लेकर अमरसिंह, करणसिंह, जगतसिंह, राजसिंह और जयसिंह तक यह नीति अपनाई गई। इस काल में उदयपुर ही नहीं, ठिकानों में भी आवासीय बस्तियों के साथ साथ बाग बगीचे लगाए गए। बस्तियों और घरों के समूह बाड़ी के नाम से ही जाने जाते रहे।
यह विचार इतिहासकार डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू“ ने विश्व पर्यावरण दिवस पर एक वर्चुअल गोष्ठी में व्यक्त किए। उनका कहना था कि महाराणा प्रताप के निधन के बाद महाराणा अमरसिंह ने राशमी जैसे क्षेत्र में अतिशय पुण्य क्षेत्र का विकास किया। वहां अपने पोत्र छतर मल को नियुक्त किया। ये ऐसे वन की धारणा थी जहां से पत्ता तक नहीं तोड़ा जा सकता था। कुआं निवाण जैसे अच्छे जल स्तर वाले कूप के लिए वृक्षारोपण को अनिवार्य किया गया। फलदार वृक्ष जरूरी और लाभदायक माने गए।
इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा का कहना था कि मेवाड़ ने पर्यावरण संरक्षण की सबसे पहले चिंता की क्योंकि वह मुगलों के निशाने पर था। दुर्ग तोड़ने के साथ ही मुगलों ने मेवाड़ के मैदानी भागों को भी जलाने और उजाड़ने की नीति अपनाई। ऐसे में वर्षा जल और पहाड़ी जल सहित भूमिगत जल को संसाधन मानकर जंगल को बचाने और अधिकाधिक जल संकेतक पेड़ लगाने की नीति अपनाई गई। तब वनों में वन्यजीवों को सुरक्षित रखा गया। इससे वन, वन्यजीव और वनोपज आदि सभी सुरक्षित रहे।हल्दीघाटी युद्ध के तत्काल बाद महाराणा प्रताप ने इस नीति को लागू किया, यह संसारभर के लिए आदर्श है। महाराणा प्रताप पर्यावरण नीति के नियामक रहे हैं।
टॉफी कार्यक्रम के राज्य समन्वयक एवं पर्यावरणविद डॉ. सत्य प्रकाश मेहरा ने मेवाड़ की वनस्पति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया की वर्तमान में पर्यावरण को बचाने हेतु हमें पुनः भारतीय संस्कृति को स्थापित करना पड़ेगा। हमारी प्राचीन प्रकृति पुरुष आधारित अरण्य संस्कृति ही सतत विकास के लक्ष्यों को सही मायने में स्थापित कर सकने में कामयाब हो सकती है। स्थानीय वनस्पति को अधिक से अधिक रोपित कर हम अपने पर्यावरण को संरक्षित कर सकते है।