नवरात्रि विशेष
-भगवान प्रसाद गौड़
नवरात्रि हमारी चेतना को नवशृगांर, सृजन और सुशक्त करने का नौ दिवसीय महोत्सव है। इन्द्रियों को संयम, संकल्प तथा आध्यात्मिक शक्ति को साधना और तपस्या से परिष्कृत व विशुद्ध करने का शुभ-मुहुर्त है। तनाव-चिंता, दूषित विचार और प्रदूषित वातावरण के दौर में मानव मात्र को आत्मोन्नति और निरोगी जीवन के लिये नवरात्रि में नव-संकल्प और नवोन्मेष का सुकृत्य करना चाहिए।
माँ दुर्गा के नौ दिनों में नौ रूपों की उपासना की जाती है –
प्रथम शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रहमचारिणी। तृतीय चन्द्रघण्टेति कुष्माण्डेति चतुर्थकम।।
पंचम स्कन्दमातेति षष्ठम कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रिति महांगौरीति चाष्टम्।
नवम् सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।।
माँ का नाम जुबान पर आते ही एक शीतल आवरण, सकून, प्रेम-ममता और दुःख तपिश को ढक देने वाली सूरत का अहसास होने लगता है। जीवन की हर लड़ाई को जीतने की शक्ति मिल जाती है। ऐसे में माँ के अनुष्ठान के ये नौ दिन हमें हर क्षेत्र में ऊर्जा और विजय प्रदान करने वाले है। नारी के पूरे जीवन-चक्र का बिम्ब है माँ दुर्गा और उसके नौ रूप।
देवी आराधना के काल में देश-दुनिया में बढ़ते दुःख-दर्द, परेशानियां-रोग, नारी उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की घटनाओं को रोकने की दिशा में चिंतन और प्रयास होना चाहिए। नर-नारी गृहस्थी की गाड़ी के वे दो चक्र हैं, जिनमें भागीदारी, निरतंरता और संतुलन आवश्यक है। दोनों के सामंजस्य, प्रसन्नता व उन्नति से ही समाज व खुशहाल विकसित राष्ट्र का लक्ष्य हासिल हो सकेगा। आज हर तरफ महिलाओं के साथ हो रही घटनाओं के बाद अब नारी सोचने लगी है कि ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो।‘
इसलिए हम नवरात्रि में आत्मोत्थान के लिए तपस्या, हवन-साधना और मंत्र जाप करें। साथ ही नव-संकल्प लें- बेटियां सुरक्षित और सशक्त हों, उन्हें पुरूष के बराबर हक मिले, उन्हें आत्मनिर्भरता के अवसर प्राप्त हों, घर-परिवार व कार्यस्थल में भेदभाव का सामना न करना पडे़, उन्हें अपनी खुशी व प्रगति के लिये अपनी रूचि के काम की आजादी हो, हर बेटी का सम्मान हो, वे निर्णय लेने में स्वतंत्र हों, उन पर फैसले थौपे नहीं जाएं, उनकी प्रतिभा व गुणों का सम्मान हों और उनके जन्म पर घर-परिवार व समाज में उत्सव-सा माहौल हों।
नवरात्रि में गरबा उत्सव माँ को रिझाने का एक आत्मिक व पारम्परिक उपक्रम है जिसमें विकृत मानसिकता और असामाजिक तत्वों के लिए कोई स्थान नहीं है। माँ के पूजा पांडाल को पवित्र व प्रतिष्ठित बनाये रखना जरूरी है। परिवार व समाज को गर्त में ढ़केलने वाली प्रवृत्तियों के निषेध करने का भी यह श्रेष्ठ अवसर है। घृणा-असत्य,लालच, अभिमान, दिखावा-बुराई, चोरी और नशाखोरी व्यक्ति के शत्रु समान हैं। युवा वर्ग इनकी चंगुल में फंसकर समय से पहले ही मौत का ग्रास बन जाते है। प्रेम, सत्य, परमार्थ, सतपथ, निष्ठा, दया और आपसी मेल-जोल के मार्ग पर अग्रसर होते हुए ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः‘ की भावना से जीवन को सार्थकता प्रदान की जानी चाहिए।
हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों पूर्व ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र देवता‘ का मंत्र दिया था। लेकिन समाज आज इससे भटक गया है। समय रहते पुनः ‘नारी को नारायणी‘ के रूप में स्वीकार करना है। उसकी प्रतिष्ठा जरूरी है।