सनातन का तात्पर्य शाश्वत और चिरंतन सत्य है जो कल भी था आज है और आगे भी रहेगा। सनातन की इस जीवंत सत्ता में समय के साथ जो कुछ भी कुरीतियां आई उन सबको विभिन्न कालखंडों में हुए ऋषि- मुनियों और धर्माचार्यों ने निकाल कर बाहर किया। हमारे पूर्वजों ने भारत के परिचय को गढ़ते हुए उन्मुक्त मन से सभी और से नैतिक उदात्त आदर्शों को आत्मसात किया। 300 वर्ष पहले के अखंड भारत के विस्तार में लोकमाता अहिल्याबाई की स्मृति एक शासक के रूप में यदि आज भी है तो वह इसलिए है कि उनके राज्य में मूल्य आधारित शासन विद्यमान था। उनके समय में उनसे भी बड़े साम्राज्य थे किंतु आज हमारी स्मृतियों में नहीं हैं। 300 वर्ष पहले की चमक हमारी स्मृतियों में क्यों चमक रही है क्योंकि उन्होंने नैतिक मूल्य हमारे समाज में प्रतिस्थापित किये। देवी अहिल्याबाई ने अपने 28 वर्ष के कालखंड में भारतीय जीवन-दर्शन और सभ्यता-संस्कृति के लिए सब कुछ आहूत कर दिया। अहिल्याबाई का दान न केवल अपने राज्य तक सीमित था बल्कि पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक हर क्षेत्र के लिए समर्पित था। उन्होंने अपने शासनकाल में विधवाओं को संपत्ति का अधिकार प्रदान कर एक मिसाल कायम की। निडरता और स्पष्ट बोलने का उनका गुण शासकों की पंक्ति में उन्हें प्रथम स्थान पर खड़ा करता है तो वहीं दूसरी ओर उनकी विनम्रता तथा धार्मिकता उन्हें देवत्व प्रदान करती है। अहिल्याबाई में एक नारी के कीर्ति, यश, लक्ष्मी, वाक चातुर्य, स्मृति, बौद्धिक क्षमता, त्याग तथा न्यायप्रियता जैसे सभी गुण थे।
यह विचार महात्मा गांधी संस्थान में गुरुवार को एबीआरएसएम की ओर से आयोजित अहिल्याबाई विषयक व्याख्यान में संस्कृताचार्य डॉ. राजेश जोशी ने व्यक्त किये। जोशी ने देवी अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जन्म जयंती के उपलक्ष्य में महाविद्यालय के विद्यार्थियों और प्रशिक्षणार्थियोंं को जीवन में सनातन संस्कृति को आत्मसात करने का आह्वान किया। गीताशिक्षणकेन्द्र की चर्चा करते हुए उन्होंने गीता प्रभावना से जुडने का आह्वान किया। इस अवसर पर संस्कृत के सह आचार्य रामरज सिंह और डॉ लोकेंद्र कुमार सहायक आचार्य हिन्दी उपस्थित रहे। प्रारम्भ में अतिथियो का स्वागत संस्था प्रमुख डाॅ धर्मेश त्रिवेदी ने किया।