सेकडो बंदुको से शहीदों को दी जाती है सलामी टोपे उगलती है आग
ऐडा का ढोल बजने के साथ ही शुरू हो गया जमरा बीज महोत्सव
होलिका दहन से पूर्व रात्रि 1 बजे बजते ढोल
माधव मेनारिया
वल्लभनगर । देश में होली का त्यौहार रगो से मनाया जाता है लेकिन हर क्षेत्र की मनाने की अलग परम्परा है उसके पीछे अलग अलौकिक कहानी होती है परंतु हम आपको आज एक एसी अनोखी होली से रूबरू करवाते हैं जिसे देखते या सुनने ही आप दंग रह जाओगे उदयपुर जिले से 45 किलोमीटर दूर उदयपुर चितौड़ गढ़ मार्ग पर दो सरोवरो के बीच स्थित मेनार गांव में बारुदो से होली हर वर्ष की तरह इस साल भी परंपरागत रूप से खेली जाएगी मुगल सेना पर जीत के जश्न में गांव के ग्रामीण जमरा बीज मनाते हैं मेवाड़ के शुरवीरो ने मुगलों को कैसे धूल चटाई थी, यह तो इतिहास के पन्नो में पढ़ा एवम सुना होगा लेकिन 500 साल पहले हुए इस युद्ध को मेनार गांव में हर साल दोहराया जाता है. युद्ध भी कोई सामान्य नहीं, बंदूक और तोपें आग उगलती है और इनकी आवाज की गूंज गांव से 5 किलोमीटर के दायरे में सुनाई पड़ती है यही नहीं तलवारें धार से चमक उठती हैं.खास बात यह है कि इस बारूद की होली में सुरक्षा गार्ड गांव के ही मीणा एवम रावत समाज के द्वारा कमान संभाली जाती है हालाकि पुलिस जाप्ता भी रहता है लेकिन वे केवल दर्शन होते है . ग्रामीणों में इतना अनुशासन है कि बारूद की होली खेलते हुए भी आज दिन तक कभी कोई झगड़ा या जन हानि का नुकसान नहीं होता है. यहां होली को दिवाली की तरह मानते हैं. क्योंकि यहां दिवाली के दिन सिर्फ दिए जलते हैं और सबसे बड़ा त्योहार जमरा बीज महोत्सव ही होता है.
होली के त्यौहार की शुरुआत अगले दिन रात की एक बजे रण बाकुरे ढोल की तान से होती है गांव के 5 स्थानों पर दो ढोल एक साथ दस दस मिनिट के अंतराल में बजते हैं जो 36 पहर तक बजते रहने के साथ ही शहीदों को सलामी तलवारो की गैर नृत्य एवम आग उगले गोटे घुमाने के करतब के साथ ही जमरा बीज बारूदो की होली का जश्न थमता है
कार्यक्रम की शुरुआत दिन में ओकरेशवर चौराहे पर गांव के सभी लोग एकत्र होते होने के साथ ही शुरु होती है. पूरे साल का लेखा-जोखा देखते हैं. पूरे साल में गांव में कितने बच्चे हुए इनके बारे में देखा जाता है. पूरा गांव दुल्हन की तरह सजा होता है गांव का मुख्य चौराहा सतरंगी रोशनियों से सजा होता है रात करीब साढ़े दस बजे. चौराहे से निकली पांच गलियां से सैकड़ों लोग बंदूकों का हवाई फायर करते हुए मुख्य चौराहे पर दौड़ पड़ते था दृश्य युद्ध से कम नही लगता ही करीब दो पहर की भयकर आतिशबाजी होती है. आतिशबाजी भी ऐसी की दो घंटे तक एक सेकंड के लिए भी आवाज नहीं थमती. फिर पांचों टीम युद्ध के लिए तैयार होती है और हमले के आदेश पर पांचों चौक पर एकत्र होती है. बंदूकों-तोपों की बौछार होती है. चारों तरफ धुंआ और तेज आवाजों से इलाका गूंज उठता है.महिलाए गाती है मंगल गीत सिर पर महिलाओ के लोटा होता है जिसमे पानी एवम भुजिया होता है जो होलिका को एवम शहीदों को अर्धजल देती है इतिहास का वाचन गांव का ही नागरची करता है जमरा महोत्सव से पूर्व के दिन धुलडी का पर्व मनाया जाता है इसी दिन गांव के सभी लोग साल भर में किसी के घर में गम होने की स्थिति में उस परिवार को भी जमरा बीज महोत्सव में सामिल होने का एवम उसके दुख में भागीदारी निभाते हुए उसके घर पर शोक व्यक्त करने के लिए एवम खुशी में शोकाकुल परिवार को सामिल करने के लिए रणाबाकुरे ढोल के साथ पहूचते है इसी रात्रि गांव में जन्म का ढूंढो उत्सव मनाया जाता है
500 साल से चली आ रही इस परंपरा को निभाने के लिए सभी गांव वाले मेवाड़ी पोशाक में होते हैं. पोशाक में धोती-कुर्ता और कसुमल पाग पहने ग्रामीणों की पूरी रात बंदूके आग ऊगलती है. वहीं गरजती तोपों की गर्जनाओं से ओंकारेश्वर चौक का माहौल युद्ध जैसा हो जाता है. राजस्थान इतिहास में कर्नल जेम्स टॉड ने भी मेनार का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘द एनालिसिस ऑफ राजस्थान’ में मणिहार नाम के गांव के नाम से किया है. खास बात तो यह ही इस महोत्सव में गांव में निवास करने वाली समस्त जाति बिरादरी का योग दान होता है गांव के मीणा समाज द्धारा निभाई जाती है सुरक्षा की जिम्मेदारियां
क्या है इतिहास
मेवाड़ पर महाराणा अमर सिंह का राज्य था. उस समय मेवाड़ की पावन धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनियां (सेना की टुकड़ियां) थीं. इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी. इन छावनियों के आतंक से लोग दुखी थे. मुगल छावनी के आतंक से हर कोई त्रस्त था. ऐसे में भगवान परशुराम के वंशज और महाराणा उदय सिंह के रक्षक इसे कब तक सहन करते जब मेनारवासियों को वल्लभ नगर छावनी पर विजय का समाचार मिला तो गांव के वीरों की भुजाएं फड़क उठीं. गांव के वीर ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई. उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी. समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया. इस कूटनीति के तहत होली का त्योहार छावनी वालों के साथ मनाना तय हुआ. होली और धुलंडी साथ-साथ मनाई गई.
यह दिन चैत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रम संवत 1657 की रात्रि को राजशी गैर का आयोजन किया गया. गैर देखने के लिए छावनी वालों को आमंत्रित किया गया. ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर बजाया गया. नंगी तलवारों, ढाल और हेनियों की सहायता से गैर खेलनी शुरू हुई. अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया. गांव के वीर छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े. रात भर भयंकर युद्ध चला. ओंकार महाराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलों के आतंक से बचाया गया. आज भी इसके प्रमाण गांव के इतिहास के पन्नो में जमरा घाटी स्थान एवम कोर्ट मार्ग के रूप में प्रचलित है मुगलों पर विजय के उपहार में तत्कालीन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी. यही नहीं, मेनारवासियों से 52 हजार बीघा जमीन पर लगान तक नहीं वसूला गया. मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह प्रथम ने मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया, जो परंपरा आज भी कायम है
इस नजारे को देखने मध्यप्रदेश गुजरात एक राजस्थान के कोने कोने से से बड़ी संख्या में लोग देखने उमड़ पड़ते है
क्या है ऐडा का ढोल : होलिका दहन से एक दिन पूर्व रात्रि को दो रणबाकुरे ढोल एक साथ मशालों के निहित स्थानों पर करीब 15 से 15 मिनिट अंतराल पर रात करीब 1 बजे से बजने शुरु होते है वह ढोल 36 घंटो तक रणभेरी की तरह बजते रहते है बारुंदो की होली के समापन के साथ ही ढोल बंद होते हैं