विद्यापीठ एवं आईसीएसआर के साझे में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन
हड़प्पा सभ्यता की खोज के सौ वर्ष: पुरानी समस्यॉ एवं नवीन दृष्टिकोण
भारतीय ज्ञान परम्परा का उद्गम हडप्पा संस्कृति से – प्रो. शिंदे
स्व की पहचान ही सफलता का प्रमुख मार्ग – डॉ. ओम उपाध्याय
उदयपुर 20 सितंबर / हड़प्पा संस्कृति में कई ऐसे ठोस प्रमाण मिले है जिससे प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान परम्परा का उद्गम इसी काल से हुआ है। खुदाई के दौरान प्राचीन सरस्वती की मुर्तिया जिन पर धूएॅ की परत, पीपल के वृक्ष, नारी की मुर्तिया आदि के प्रमाण मिले है। हडप्पा कालीन संस्कृति में अधिकाधिक सशक्त भारतीय ज्ञान परम्परा व समृद्धशाली भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व प्रमाण सहित मिलते है। नमस्ते की परम्परा भी इसी सभ्यता की देन है। उक्त विचार शुक्रवार को राजस्थान विद्यापीठ विवि के संघटक साहित्य संस्थान एवं भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में प्रतापनगर स्थित आईटी सभागार में हड़प्पा सभ्यता की खोज के सौ वर्ष: पुरानी समस्याएॅ और नवीन दृष्टिकोण विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में पूर्व कुलपति एवं प्रभारी सदस्य प्रो. वसंत शिंदे ने बतौर मुख्य वक्ता कही।
मुख्य अतिथि आईसीएचआर के सदस्य सचिव डॉ. ओम उपाध्याय ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण स्व की पहचान है , व्यक्ति के अन्तरमन की शक्ति और सामर्थ्य का आभास ही उसके कार्य की सफलता का द्योतक है। माता भूमि, पुत्रोहं पृथिव्या: का भाव भी इसी सभ्यता में परिलक्षित होता है। काल खंड का निर्धारण सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित करने की अत्यंत आवश्यकता जताई। वर्ण व्यवस्था की संकल्पना भी इसी सभ्यता का अंश है।
अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. एस. एस. सारंगदेवोत ने कहा कि हड़प्पा सभ्यता दुनिया की सबसे समृद्ध सभ्यता रही है। इतिहासकारों के लिए हडप्पा जैसी उन्नत व समृद्ध सभ्यता को वर्तमान संदर्भ मंे समाज के बीच प्रस्तुत करना एक महत्वपूर्ण चुनौती है। यह सभ्यता इतनी उन्नत थी कि उस काल खण्ड में भी पैड़, पौधे , प्रकृति पुजन प्रमुख अंग रहा है। उन्होंने कहा कि प्रकृति से हमेशा स्नेह एवं श्रद्धा रखते हुए नजदीक रहना चाहिए। जितना हम उससे दूर भागेंगे उतना ही सभ्यता से दूर होते चले जायेंगे। हमें इतिहास से सिखने की जरूरत है, जिसके अभाव में हमारी कई सभ्यताएॅ नष्ट हो गई है। चार्ल्स मेसन ने 1842 में पहली बार हड़प्पा सभ्यता की खोज की उसके बाद दयाराम साहनी ने 1921 से 1923 में खुदाई की थी जिससे यह सभ्यता सामने आयी है। यह दुनिया की चार प्रारंभिक सभ्यताओं में से एक ह। रेडियों कार्बन के अनुसार यह सभ्यता लगभग 2500-1750 ईसा पूर्व की हो सकती है। यह अपने व्यवस्थित नियोजन के लिए जाना जाता है जो ग्रीड प्रणाली के आधारित था। सिंधु घाटी सभ्यता के शहरो में सामाजिक पदानुक्रम, उनकी लेखन प्रणाली, उनके बड़े नियोजित शहर और उनके लम्बी दूरी के व्यापार थे जो उन्हें पुरातत्वविदां के लिए पूर्ण विकसित सभ्यता के रूप में चिन्ह्ति करते है। इस सभ्यता के लोग मापने में बहुत सटीकता रखते थे।
प्रारंभ में निदेशक प्रो. जीवन सिंह खरकवाल ने अतिथियों का स्वागत करते हुए दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की जानकारी देते हुए बताया कि विद्यापीठ ने उत्खनन के क्षेत्र में कई नये आयाम स्थापित किए है। इससे पूर्व अतिथियों द्वारा पुरातत्व प्रदर्शनी का शुभारंभ किया। प्रदर्शनी में हडप्पा सभ्यता के पुरातत्व चित्रों व दुर्लभ वस्तुओं को देश अभिभूत हुए।
उत्कृष्ट कार्य के लिए किया सम्मान:-
समारोह में अतिथियों द्वारा पुरातत्व क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले पायेल सेन, सौरभ भास्कर का उपरणा, शॉल एवं स्मृति चिन्ह् देकर सम्मानित किया।
तकनीकी सत्र में प्रो. वीएच सेनावाने, केके भान, किन्सु, अनिल पोखरिया ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
सेमीनार में प्रो. मंजु मांडोत, सहायक निदेशक डॉ. नितिन कुमार, डॉ. हेमेन्द्र चौधरी, डॉ. युवराज सिंह राठौड़, साहित्यकार डॉ. छगन बोहरा, इन्द्र सिंह राणावत, डॉ. कुल शेखर व्यास, जयकिशन चौबे, डॉ. विवेक भटनागर, डॉ. मनीष श्रीमाली, केके ओझा, राजेन्द्र नाथ पुरोहित, प्रो. विमल शर्मा, पायल सेन, बैंगलोर – एसके अरूणी, तमेग पंवार – जयपुर, चन्द्रशेखर-दिल्ली, अनिल पोखरिया, डॉ. महेश आमेटा, नारायण पालीवाल, शोएब कुरैशी, संगीता जैन सहित शहर के गणमान्य नागरिक, स्कोलर एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।
धन्यवाद सहायक निदेशक डॉ. नितिन कुमार ने दिया जबकि संचालन डा.ॅ कुलशेखर व्यास ने किया।