भंवर म्हाने पूजन दो दिन चार…

राजस्थान का नाम सुनते ही हृदय आनंदित हो उठता है। जहां एक और राजस्थान की वीरगाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है, वहीं दूसरी ओर यहां के तीज-त्यौहार अपने आप में विशेष महत्व रखते हैं। तभी कहते हैं-ः ’रंग रंगीलो, रस भरियो, म्हारो प्यारो राजस्थान’।
गणगौर पर्व राजस्थान के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। राजस्थान के लगभग हर हिस्से में यह पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। गणगौर के साथ कई लोक कथाएं जुड़ी हुई है जो इस त्यौहार को राजस्थान के जनमानस के दिलों में गहराई से बसाती है। ’गण’ भगवान शिव का पर्याय है और ’गौरी’ या ’गौर’देवी पार्वती का प्रतीक है। शिव-पार्वती को समर्पित इस पर्व की पौराणिक कथा के अनुसार चैत्र शुक्ल तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह भगवान शिव से हुआ था।यह माना जाता है की माता गौरी होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती है तथा 16 दिनों के बाद ईसर जी (भगवान शिव) उन्हें फिर लेने के लिए आते हैं औरमाता गणगौर की विदाई होती है।इसलिए यह पर्व इन दोनों के मिलन का उत्सव मनाने के साथ ही वैवाहिक सुखी जीवन का भी प्रतीक है।

होली के अगले दिन से लगातार सोलहदिनों तक चलने वाला गणगौर पर्व मुख्यतः कुंवारी कन्याओं व महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार है। यह त्यौहार विवाहित व अविवाहित महिलाओं के लिए विशेष धार्मिक महत्व रखता है। विवाहित महिलाओं द्वारा अपने जीवनसाथी की समृद्धि और लंबी उम्र के लिए मां गौरी की पूजा की जाती है, जबकि अविवाहित महिलाएं अच्छा जीवनसाथी पाने के लिए प्रार्थना करती है। इसी कारण इसे ’सुहाग का पर्व’ भी कहा जाता है।
विधि-विधान से होता है गणगौर का पूजन-होलिका दहन के दूसरे दिन गणगौर पूजने वाली लड़कियां होलीदहन की राख लाकर उसके सोलह पिंड बनाती है। महिलाएं शुद्धजल लोटो में भरकर उसमें हरी-हरी दूब और फूल सजाकर सिर पर रखकर गणगौर के गीत गाती हुई घर आती है।इसके बाद शुद्ध मिट्टीसे शिव स्वरूप ईसर और पार्वती स्वरूप गौर की प्रतिमा बनाकर चैकी पर स्थापित करती है। मिट्टी के स्थान पर वर्तमान में लकड़ी की छोटी-छोटी प्रतिमाओं को पूजा जाने लगा हैं। ईसर-गणगौर को सुंदर वस्त्र पहनाकर संपूर्ण सुहाग की वस्तुएं अर्पित करके चंदन, अक्षत, धूप दीप, दूब और पुष्प से उनकी पूजा अर्चना की जाती है सौभाग्य के लिए सोलह-सोलहबिंदी कुमकुम व मेहंदी से लगाई जाती है।जवारा बोये जाते हैं। लड़कियां प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में गणगौर पूजते हुए गीत गाती है-
गौर ए गणगौर माता, खोल की किंवाड़ी,
बाहर ऊबी थारी पूजन वाली,
पूजो ए पूजावो संइयो, काँई-काँई मंागा,
माँगा ए म्हें अन-धन लाछर लक्ष्मी जलहर जामी बाबुल मांगा…………………।  

वहीं दूब के साथ आठ बार पिंडो की पूजा करती हैं-
गोर-गोर गोमती,
ईसर पूजूँ पार्वतीजी,
पार्वती का आला-गीला,
गोर का सोना का टीका,
टीका दे,
टमका दे राणी,
बरत करे गोराँदे रानी,
करता-करता आस आयो,
मास आयो…………………….।

मेवाड़ में गणगौर पर्व का विशेष महत्व- ईसर-गणगौर के प्रति उत्साह और भक्ति से भरा यह पर्व मेवाड़ का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है।चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिन यानी चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला गणगौर का यह त्यौहार स्त्रियों के लिए अखंड सौभाग्य प्राप्ति का पर्व है।
होली के पद्र्रंहवे दिन यानि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को ’दाँतण हेला’ मनाया जाता है। रात्रि जागरण कर लकड़ी से बने ईसर-गणगौर की प्रतिमाओं पर शुद्ध जल का छिंटा डालकर नए वस्त्र पहनाकर श्रृंगार कर पूजा की जाती है तथा प्रतिमाओं को नीम का दातुन कराया जाता है। भांग के बने पकौड़े और ठंडाई का भोग लगाकर आरती गायी जाती है –
पहली आरती करू रा सूरज जी, लूड़ लूड़ लागूली पांव, गणगौर माता पूजु सोवन चंपा री डाल……

इस रात्रि को शहर के राजमाली समाज व कहारभोई समाज में युवकों द्वारा कई स्वांग भी रचे जाते हैं जिसमें मुख्य रूप से ’हिंगड़ बाबो’(सिंग वाला राक्षस)और ’डाकन’(डायन) का स्वांग कर मोहल्ले में घूमते हैं, वहीं महिलाओं द्वारा ’टूटिया’ भी निकाला जाता है, जिसमें दो महिलाएं दूल्हा-दुल्हन बनाकर समाज के लोगों को धोक लगाकर नेक लेती है यह सभी दृश्य आनंदित व प्रफुल्लित करने वाले हैं ’दाँतण हेला’ के अगले दिन से चार दिन का गणगौर महोत्सव प्रारंभ होता है।
मेवाड़ में मेवाड़ महोत्सव के रूप में गणगौर पर्व की अनोखी झलक देखने को मिलती है।उदयपुर के बडे़ बुजुर्गों के अनुसार गणगौर वह त्यौहार था जब विभिन्न समुदायों के साथ राजपरिवार द्वारा गणगौर पर्व मनाया जाता था। वर्णन के अनुसार एक तरफ राजपरिवार अपनी गणगौर को शाही नाव में लेकर पिछोला घाट पर पहुंचते थे। वहीं दूसरे किनारे पर दूसरी तरफ विभिन्न समुदायों के लोग शाही परिवार के साथ त्यौहार मनाने की प्रतीक्षा करते थे। यह विरासत आज भी जारी है और आज भी राज परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले सिटी पैलेस से सजी-धजी ईसर-गणगौर की लकड़ी की प्रतिमाओं को लेकर जुलूस के साथ शाही नाव से पिछोला घाट पर आते हैं। वही उदयपुर के विभिन्न समाजांे की गणगौर की पारंपरिक शोभा यात्राएं विभिन्न स्थानों से प्रारंभ होकर घंटाघर, जगदीश चैक होते हुए पिछोला घाट पर पहुंचती है। इन जुलूसों की अगुवाई पालकियां, ऊंट गाड़ियां और प्रदर्शन करने वाले लोक कलाकारों की रंगारंग शोभा यात्रा द्वारा की जाती है। लाल वस्त्रों में सजी-धजी महिलाएं सजी-धजी ईसर-गणगौर की प्रतिमाएं अपने सिर पर रखकर नाचती गाती हुई चलती है।महिलाओं द्वारा घूमर नृत्य किया जाता हैं। चार दिवसीय गणगौर में पहले दिन प्रतिमाओं को लाल वस्त्र, दूसरे दिन गुलाबी वस्त्र, तीसरे दिन हरे व चैथे दिन वसन्ती रंग (पीला रंग) के वस्त्र धारण कराये जाते है। इनको देखने बड़ी संख्या में देशी-विदेशी सैलानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं। पिछोला घाट पर पहुंचने पर ईसर-गणगौर की प्रतिमाओं की पूजा की जाती है। दूब व गुलाब से इन्हें पानी पिलाया (जल कंुसुबा) जाता है, महिलाएं अपनी साड़ी का पल्लू हाथ में लेकर धोक (सालूडे) लगाती है एवं गीत गाया जाता है-
खैलण दो गणगौर, भंवर म्हाने पूजन दो दिन चार,
हो जी म्हारी सहेल्या जोवे वाट, भंवर म्हाने पूजन दो गणगौर………………………….ं।।
इन गीतों में स्त्री मन की हर उमंग हर भाव को जगह मिली है। भावों की मिठास और अपनों की मनुहार लोकगीत पूजा के समय निभाई जाने वाली हर रीत को समेटे हुए हैं।

इस मेवाड़ महोत्सव के उपलक्ष्य में त्रिपोलिया घाट पर चार दिन का मेला लगता है जहां स्थानीय लोग बड़े मजे से मेले का लुफ्त उठाते हुए पर्यटन विभाग द्वारा आयोजित विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आंनद भी लेते है। तीसरे दिन शहर के समीप गोगुंदा में भी मेला भरता है। जिसमें देषी विदेशी लोग बड़ी उत्साह से भागीदारी करते हैं।चार दिन तकईसर-गणगौर की शोभायात्रा निकलती है। चैथे दिन मिट्टी की बनी मूर्तियों को जल में विसर्जित किया जाता है एवं लकड़ी के ईसर-गणगौर पर जल का छिंटा देकरउन्हें विदा किया जाता है। गणगौर विसर्जन के पहले दिन गणगौर का सिंजारा किया जाता है। लड़कियां मेहंदी रचाती है, घर में पकवान व मीठे पकोड़े (गुलगुले) व खाजा आदि बनाकर भोग लगाया जाता है।गणगौर पूजन में स्त्रियां अपने लिए अखंड सौभाग्य अपने पीहर और ससुराल की समृद्धि तथा गणगौर से प्रतिवर्ष फिर से आने का आग्रह करती है।
गणगौर की विदाई के बाद कई महीनो तक त्यौहार नहीं आते इसलिए कहा जाता है-’’तीज त्यौहार बावड़ी ले डूबी गणगौर’’।
पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे उत्सवों से जनमानस को क्षेत्रीय रीति रिवाजों को करीब से जानने का अवसर मिलता है। हर साल मेवाड़ महोत्सव के लिए पर्यटकों की संख्या और भागीदारी बढ़ रही है। इस समय में शहर में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक सुखद अनुभव होता है। हर गुजरते साल के साथ मान्यताएं और मजबूत होती जाती है अगले साल भगवान के आगमन की उम्मीद की जाती है। यह गणगौर पर्वजनमानस हृदय में अलग दुनिया का आदर्श उदाहरण है।

डाॅ. दीपिका माली
सहायक आचार्य, दृष्यकला विभाग
मोहनलाल सुखाड़िया विष्वविद्यालय,
उदयपुर

By Udaipurviews

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