पांच शताब्दियों से लोक संस्कृति के संगम का साक्षी है सोम-महीसागर संगम तीर्थ बेणेश्वर धाम
अकबर के समकालिक माने जाने वाले रावल आसकरण के समय से शुरू हुई थी मेले की परंपरा
उदयपुर, 11 फरवरी। वागड़ प्रयाग, वागड़ वृंदावन बेण वृंदावन धाम जैसे उपनामों से विख्यात सोम-महीसागर संगम् तीर्थ बेणेश्वर धाम टापू पांच शताब्दियों से लोक संस्कृतियों के संगम का साक्षी बना हुआ है। बेणेश्वर मेले को लेकर कई तरह की किवदंतियां प्रचलित है। किसी का मानना है कि बेणेधर टापू पर मेले की शुरुआत मावजी महाराज के समय से हुई तो कोई मेले का इतिहास केवल 100 साल का बताता है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करें तो बेणेश्वर टापू पर मेले की शुरूआत करीब पांच शताब्दी पूर्व रावल आसकरण के समय हो चुकी थी। बाद में इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे। हालाकि इसमें भी कोई संदेह नहीं कि लीलावतवारी संत मावजी महाराज ने इस घरा की कीर्ति चहुंओर पहुंचाई। उनकी अलौकिक लीलाओं और आगमवाणियों ने बेणेश्वर को विशिष्ट बनाया। यहां तक की बेणेश्वर धाम और यहां भरने वाला मेला भी आज मावजी महाराज का पर्याय बन चुका है।
सोम-महिसागर संगम् तीर्थ की महिमा कई पुराणिक ग्रंथों में उल्लेखित है। खास कर स्कंदपुराण में इसे पृथ्वी का श्रेष्ठ तीर्थ माना गया है। बेणकु या बेणेश्वर कहे जाने वाले इस स्थल पर सोम व माही नदी का संगम होता है। सदियों से आदिवासी समुदाय इस संगम् स्थल पर अपने पूर्वजों की अस्थियों का विसर्जन करता आ रहा है। बड़ी संख्या में लोगों के अस्थि विसर्जन के लिए पहुंचने पर 16वीं शताब्दी में रावल आस्करण ने इसे मेले का रूप दिया। डूंगरपुर के प्रसिद्ध इतिहासकार डा. महेश पुरोहित ने उनकी पुस्तक बेणेश्वरः सोम-महीसागर संगम तीर्थ में इसका जिक्र किया है। पुरोहित के मुताबिक रावल आसकरण ने यहां आने वाले जनसमुदाय को व्यवस्थित कर आर्थिक दिशा देते हुए मेला कराना शुरू किया था। आसकरण ने ही यहां बेणेश्वर शिवालय की स्थापना की। मेले का केंद्र आबू दर्रा और शिव मंदिर राहते थे। धीरे-धीरे यह मेला शैव भक्तों का बड़ा मेला बन गया। हालांकि बाद में कुछ राजनीतिक घटनाक्रमों के चलते मेला शिथील हो गया, जिसे महारावल शिवसिंह ने दोबारा आबाद कराया।
महारावल शिवसिंह के समय में ही मावजी महाराज का अवतरण माना गया है। मावजी महाराज को भगवान श्रीकृष्ण का लीलावतार भी कहा जाता है। मावजी महाराज ने बेणेश्वर को अपनी तपोस्थली बनाई और यही आबु दर्रा घाट पर रास लीला की। इसी रासलीला की याद में भक्त सम्मेलन शुरू हुआ, जिसने धीरे-धीर मेले का रूप ले लिया। इतिहासकार डॉ पुरोहित के अनुसार एक ही तिथि पर शैव व हरि भक्तों के अलग-अलग मेले होने लगे। मावजी महाराज हरि और हर को एक स्वरुप मानते थे, इसी अवधारणा के चलते जल्द ही दोनों मेले एक होकर विशाल बेणेश्वर मेले में समाहित हो गए।
इतिहासकार डॉ पुरोहित के मुताबिक मेला परंपरागत रूप से चलता आ रहा था। इसमें देश-विदेश के व्यापारी आते थे। इससे इसका आर्थिक महत्व बढ़ता जा रहा था। इससे तत्कालीन बांसवाड़ा और डूंगरपुर रियासत में सीमा विवाद के चलते 1849 से 1865 हैं तक मेले के दौरान आर्थिक गतिविधियां ठप रही। महकमे एजेंटी में दायर मुकदमे का फैसला डूंगरपुर रियासत के हक में हुआ। इसके बाद 1866 ई. से मेला दोबारा शुरू हुआ।
कुछ वर्षों के अंतराल के बाद महारावल शिवसिंह ने मेले को दोबारा शुरू कराया। मेले के प्रचार के लिए रियासत की ओर से घुड़सवार, हरकारे और सिपाही अन्य राज्यों और व्यापारियों को निमंत्रण देने जाते थे। इतना ही नहीं डूंगरपुर रियासत के राज्य पत्र में मेले की अधिसूचना भी प्रकाशित होती थी। संत मावजी की तपोस्थली होने तथा रास लीला का स्थल होने से मेले में दुगुने उत्साह का संचार होने लगा।
मेले में दूरदराज से व्यापारियों को आकर्षित करने तथा प्रोत्साहन देने के लिए तत्कालीन महारावल ने पांच वर्ष तक कर माफी भी दी थी। वहीं दूसरी और बांसवाड़ा रियासत ने अपने राज्य से ठोकर आने वाले व्याधारियों पर प्रति बैलगाड़ी 9 रुपए कर लगा दिया था। बाद में महकमे एजेंटी ने मध्यस्थता करते हुए यह कर वापस कराया था। महारावल शिवसिंह के बाद महारावल उदयसिंह द्वितीय ने मेले को पल्लवित करने में महती भूमिका निभाई। वहां आने वाले श्रद्धालुओं और व्यापारियों में विश्वास कायम करने के लिए महारावल स्वयं अपनी जनानी सवारियों के साथ पांच दिन तक मेला स्थल पर रहे। इसके अलावा ब्रिटिश शासन के आदेश पर मेवाड़ भील कोर की सैनिक टुकड़ी और इंगरपुर के जागीरदारों के सैनिक मेले में तैनात किए जाते थे, ताकि श्रद्धालु और मेलार्थी निर्भीक होकर भ्रमण कर सकें और व्यापारी भी बेखौफ रहे।
डॉ. पुरोहित के अनुसार बेणेश्वर मेला सदियों से अंतराज्जीय रहा है। इसमें भारत वर्ष के दूरदराज से व्यापारी अपनी सामग्री बेचने आते थे। इसमें जालंधर से चूर्ण और वटी तो खंभात से नारियल और सुमना अलीगढ़ से बोरियां बिक्री के लिए आती थी। बांसवाड़ा, सागवाड़ा, सलूम्बर के व्यापारी पेजणियें लाते थे। इनके अलावा गुजरात के अहमदाबाद, मोहासा, विसनगर, चौरपुर, राधनपुर (पालनपुर), चणावदा, खेरावदा, मोरवी, गोथरा, लुणावाड़ा, कपड़वंज, मध्यप्रदेश के रतलाम, बुरहानपुर, जावद जावरा, खाचरोद सहित बंबई, आकोला, पुणे तक से व्यापारी आते थे।
मेला शुरू होने से लेकर रियासतों के राजस्थान प्रदेश में विलय तक बेणेश्वर मेले का आयोजन डूंगरपुर राज्य की ओर से किया जाता था। इसमें आने वाले व्यापारियों से कर वसूली के रूप में रियासत की आय होती थी। डा. पुरोहित के अनुसार 1868 में मेले से राज्य को 83 हजार 208 रुपए की आय हुई थी। अगले ही साल यह आय बढ़कर दो लाख 10 हजार 403 रुपए हो गई थी। इसके बाद के सालों में समय-समय पर आय में कमी और बढ़ोतरी होती रही।
आजादी के बाद मेले का आयोजन प्रशासन स्तर पर होने लगा। आसपुर तहसील स्तर से व्यवस्या की जाती थी। बाद में इसकी जिम्मेदारी पंचायत समिति आसपुर को दी गई। पंचायतीराज पुनर्गठन में साबला पंचायत समिति के अस्तित्व में आने पर अब मेले की व्यवस्थाएं साबला पंचायत समिति के जिम्मे हैं। डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिला प्रशासन का इसमें पूर्ण सहयोग रहता है। मेला धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय पटल पर ख्याति बटौरने लगा है। मेले में अब व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ मनोरंजन साधनों की भी बढ़ोतरी हुई है। प्रशासन यहां खेलकूद के साथ सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित कर पर्यटकों को रिझाने का प्रयास करता है। इसके साथ ही धाम के प्रति आस्था की सरिता का वेग भी बढ़ा है। मेले में आने वालों की संख्या अब लाखों में पहुंच चुकी है।
बेणेश्वर मेले का परंपरागत आगाज माघ एकादशी पर होता है। परंपरा चली आ रही है कि माघ पूर्णिमा पर महंत अच्युतानंद महाराज और भगवान निष्कलंक की पालकी साबला हरिमंदिर से बेणेश्वर धाम पर पहुंचती है। यहां आबू दर्रा में स्नान करने के बाद साद भक्तों की ओर से हाथ से बुना वस्त्र भेंट किया जाता है। उसे ही धारण कर महत राधाकृष्ण मंदिर में आते हैं तथा गादी पर विराजित होते हैं।
खड़गदा के वरिष्ठ साहित्यकार और माव साहित्य का विवेचन करने वाले स्व. रविन्द्र डी. पण्ड्या ने मावजी महाराज और बेणेश्वर पर आधारित पुस्तक श्री मावजी जीवन दर्पण में झांकती श्रीकृष्ण लीला में मावजी महाराज का संपूर्ण जीवन परिचय और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का परिचय दिया है। मान्यता है कि संत मावजी ने माध पूर्णिमा की रात को आबू दर्रा घाट पर रास लीला रचाई थी। इसी लिए आज भी साद संप्रदाय के अनुयायी माध पूर्णिमा पर बेणेश्वर धाम पर माव भजन गाते हुए रासलीला करते हैं। इस रासलीला से वृंदावन का नजारा जीवंत सा हो उठता है।
आज भी यही भांति है कि यहां तीन नदियां हैं। जबकि हकीकत यह है कि यहां सोम और माही का संगम होता है। जाखम नदी तो बेणेश्वर से 22 किलोमीटर पहले ही सोम में मिल जाती है। बेणेश्वर में माही नदी अपनी एक बांह फैला कर सोम का आलिंगन सा करती प्रतीत होती है इसलिए यह स्थल टापू बनता है और इसी वजह से तीन नदियों की भांति होती है। मावजी महाराज ने भी लिखा है कि सोम माही चालीआ, जलकत नीर अपार… आबुदरो. बेण पर खेलत साम मोरार। इसमें कहीं पर भी जाखम का जिक्र नहीं है।