उदयपुर, 30 जुलाई। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में मंगलवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि जीते जी सन्मति व मरने के बाद सुगति मिले यही सभी की चाहत होनी चाहिए। सन्मति युक्त व्यक्ति सद्कार्यों में प्रवृत्ति करता है। संसार में पुण्य कोई भी जीव कर सकता है पर धर्म हर कोई नहीं कर सकता है। मन, वचन व काया की शुभता का नाम पुण्य है। जबकि मन, वचन व काया की शुद्धता का नाम धर्म है। पुण्य बांधने के लिए सामायिक, प्रतिक्रमण आदि जरूरी नहीं है क्योंकि पुण्य तो शुभ भावों से बंधता है। शुद्धता युक्त धर्म में शुभता निश्चित होती है पर पुण्य में शुद्धता हो, यह जरूरी नहीं है। संसार में नया-नया ज्ञान अर्जित करते-करते जीव के परिणाम श्रेष्ठ बनते जाते हैं, इनमें स्थायित्व आने पर जीव तीर्थंकर नाम कर्म का बंध भी कर लेता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, इसी विशेषता के कारण जर्मनी विद्वान जार्ज बर्नाडशा ने कहा कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो भारत के जैन कुल में हो ताकि मैं अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकूं। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने फरमाया कि पानी जो कि अप्काय है का सदुपयोग करें, व्यर्थ में दुरूपयोग नहीं करें क्योंकि जल है तो जीवन है, जल है तो कल है। पानी से ही हरियाली, ऑक्सीजन, अन्न आदि हैं। पर्यावरण की दृष्टि से पानी के उपयोग में विवेक जरूरी है जो साधु-संतों के जीवन में परिलक्षित होता है। विवेक से ही धर्म होता है। पानी का दुरूपयोग करने पर कर्म सत्ता कभी बाढ़ के रूप में, कभी शरीर के विभिन्न हिस्सों में पानी एकत्रित हो जाने पर बीमारी के रूप में बदला लेकर सजा देती है। अतः दुरूपयोग से बचो।
संसार में पुण्य कोई भी जीव कर सकता है पर धर्म हर कोई नहीं कर सकता है: आचार्य विजयराज
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