पुण्योदय से ही शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न एवं जीवन में समृद्धि बनी रहती है: आचार्य विजयराज

उदयपुर, 1 अगस्त। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में गुरूवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि ठाणांग सूत्र में ज्ञान दो प्रकार का बतलाया गया है-प्रत्यक्ष व परोक्ष ज्ञान। अवधि ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं तथा मतिज्ञान व श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है .जिस ज्ञान से हमारे व्यवहार,संस्कार एवं भावों में परिवर्तन आए वह ज्ञान महत्वपूर्ण है। सम्यक् ज्ञान के पांच फलित बतलाये गए हैं-प्रज्ञा का जागरण, बुद्धि की निर्मलता, भाव में शुद्धता, कुबुद्धि का निराकरण और श्रुत भक्ति से पुण्य की वृद्धि। जो व्यक्ति निरंतर श्रुत की भक्ति करता है उसे औपपातिक बुद्धि प्राप्त होती है अर्थात् उसकी बुद्धि अत्यंत सूझबूझ भरी हो जाती है जैसे कि राजा श्रेणिक के पुत्र एवं प्रधानमंत्री अभय कुमार की थी। गृहस्थ जीवन में पुण्य बहुत आवश्यक है क्योंकि पुण्योदय से ही शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न एवं जीवन में समृद्धि बनी रहती है। पुण्यशाली जहां जाता है वहां पुण्य की सुगंध फैलाता है। जब पुण्यशाली जीव ज्ञान, ज्ञानवान एवं ज्ञान का उपदेश देने वाले गुरुजनों की भक्ति करता है तो उसके जीवन में वह पुष्कल पुण्य का बंध कर लेता है। साधु जीवन में 25 प्रतिशत पुण्य और 75 प्रतिशत पुरुषार्थ काम आता है जबकि गृहस्थ जीवन में 75 प्रतिशत पुण्य एवं 25 प्रतिशत पुरुषार्थ काम आता है। गृहस्थ के जीवन में यदि पुण्य रिजर्व में होता है तो उसका जीवन आराम से चलता है। जिसके पुण्यवानी उदय में होती है वह मिट्टी में भी हाथ डालें तो सोना निकलता है इसीलिए पुण्य को बढ़ाओ और पुण्य को बचाओ। जिसका पुण्य प्रबल होता है उसे जीवन में मान-सम्मान मिलता है, उसकी पूछ परख होती है। जीवन में हमेशा शुभ कर्म और भले कर्म करते रहो, जिससे पुण्य की वृद्धि हो। इस अवसर पर उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने फरमाया कि जीवों के प्रति हमारे मन में संवेदना होनी चाहिए। संवेदनशीलतायुक्त आत्मा हलुकर्मी होता है। जरा विचार करें कि क्या आप हलुकर्मी  हैं? हमें जो यह प्रकृति का सौंदर्य मिला है, वह देखने के लिए है ना कि रोंदने के लिए। आप हरी दूब आदि को रोंदने से असाता कर्म का बंध कर लेते हो। वनस्पति काय में भी चार कषाय चार संज्ञा होती है। उनमें भी आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि चारों संज्ञा होती है। आप किसी को पीड़ा देते हो तो मान कर चलना कि आपको भी पीड़ा मिलने वाली है। प्रभु महावीर ने कहा है कि है आत्मन! यदि तू हिंसा में रत रहा तो तुझे अब अबोधि ही मिलने वाली है, तेरा अहित ही होने वाला है। हे जीव! तू अन्य जीवों पर अत्याचार कर रहा है तो भविष्य में ज्ञान, दर्शन, चरित्र  व बोधि मिलना अति दुर्लभ हो जाएगा। यदि पूर्व भव में भरपूर आरंभ-समारंभ किया है तो इस भव में उपदेश सुनना अच्छा तो लगता है पर मनुष्य उसे जीवन में उतार नहीं पाता है। जो मनुष्य सदुपदेश को जीवन में उतार लेगा, उसका मार्ग सदैव प्रशस्त होगा। श्रीसंघ अध्यक्ष इंदर सिंह मेहता एवं मंत्री पुष्पेन्द्र बडाला ने बताया कि शुक्रवार को आचार्य श्री जी एवं उपाध्याय प्रवर की निश्रा में स्वाध्याय शिविर का आयोजन किया जा रहा है। शिविर में देशभर से स्वाध्यायी भाग ले रहे हैं जो उदयपुर पहुंच चुके हैं। वहीं आज बाहर से पधारने वाले दर्शनार्थियों के आवागमन के लिए श्रीसंघ द्वारा एक और ई-रिक्शा क्रय किया गया जिसका उद्घाटन सुश्रावक विजय सिंह-शंकुन्तला लोढ़ा ने मौली खोलकर उद्घाटन किया।

By Udaipurviews

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