उदयपुर, 29 जुलाई। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में सोमवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि जीव अपनी सन्मति से सुगति प्राप्त करता है। वर्तमान में जीव अपने जीवन से हर पल कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। यदि हम जिंदगी में पीछे देखते हैं तो हमें अनुभव हासिल होता है, आगे देखेंगे तो आशा मिलेगी। अपने दायें-बायें देखेंगे तो हकीकत मिलेगी और अपने भीतर देखेंगे तो आत्मविश्वास मिलेगा। हमें यह दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है। इस संसार में आये हैं तो नेकी की कमाई करें, सत्संग एवं दर्शनादि का लाभ उठाकर जीवन में भलाई का काम करें। चातुर्मास मोह की नींद से जगाने आया है। हम जागें और विषय वासनाओं से किनारा कर सुगति के मार्ग पर कदम बढ़ायें। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने फरमाया कि प्रभु महावीर एवं संतजन सदैव पापों से बचने का ही मार्ग बतलाते हैं क्योंकि पाप से भीरूता अर्थात् डरना श्रावक का एक महान गुण है। व्यावहारिक जीवन में मनुष्य करता तो पाप है पर चाहता पुण्य है, जबकि कर्मसत्ता यह कहती है कि जीवन दोगे तो जीवन मिलेगा और मौत दोगे तो मौत मिलेगी। अच्छा तो यही है कि सद्कार्यों द्वारा पुण्य को मजबूत करो तो सुख-सुविधा, सम्पन्नता मिलेगी, इनका उपभोग करते हुए निर्जरा पर बल दें। श्रीसंघ अध्यक्ष इंदर सिंह मेहता ने बताया कि आज प्रातःकालीन अरिहंत आगम बोधि क्लास में आचार्य श्री जी ने दान, समय, झूठ एवं धन की सारगर्भित व्याख्या की, इसमें उन्होंने कभी भी स्वयं पर घमंड नहीं करने की प्रेरणा दी।
अहंकार वृत्ति, स्वार्थ वृत्ति, ईर्ष्या वृत्ति का त्याग करें : निरागरत्न
उदयपुर, 29 जुलाई। श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ के तत्वावधान में मालदास स्ट्रीट स्थित आराधना भवन में चातुर्मास कर रहे पंन्यास प्रवर निरागरत्न जी म.सा. ने सोमवार को धर्मसभा में कहा कि सम्पत्ति का दान, शिक्षण का सामर्थ्य अगर पर्सनालिटि के लिए होगा तो सद्गति अनिश्चित है। यदि हम साधु भी प्रवचन भक्त, शिष्य प्रतिष्ठा, संघ उपधान आदि पर्सनालिटी के लिए करते हैं तो मोक्ष अनिश्चित है। यदि यही सब कार्य हमारे कैरेक्टर और आईडेंटी को बढ़ाने के लिए करते हैं तो सद्गति निश्चित है। यदि हम साधु भी इन सभी कार्यों को करेक्टर के लक्ष्य से करते हैं तो हमें भी शान्ति, समाधि, सद्गति मिलती है। पर्सनालिटी हमारा फोटो है और कैरेक्टर हमारा एक्स-रे है। अपने स्वभाव में रहें और दोषों को दूर करें। अहंकार वृत्ति, स्वार्थ वृत्ति, ईर्ष्या वृत्ति का त्याग करें।