मेनार की माटी ने फिर ललकारा चारो ओर भयंकर आतिश बाजी
-माधव मेनारिया
चाहे विरोधी हो, चाहे प्रतिद्वंदी , या फिर दुश्मन ही क्यों नहीं हों, उस पर विजय का जश्न आपने मिठाई बांटकर, बधाई देकर या हल्की फुल्की आतिशबाजी करके मनाने का तरीका आपने अमूमन कई जगह देखा होगा। और अक्सर होता भी यही है, लेकिन आपने विजय के जश्न में केवल और और केवल गरजती तोपें और बंदूकें और कान के पर्दे तक फाड़ देने वाली दमघोंटू आतिशबाजी कहीं नहीं देखी होगी, लेकिन ,,,लेकिन जनाब आप भूल रहे है , ये सब होता है, एक बार नहीं, करीब साढे छह सौ साल से ऐसा मनाया जा रहा है, इसके अलावा उस जश्न में उस जगह का इतिहास पढा जाता है, तो ढोल की थाप पर तलवार के साथ गेर नृत्य और अखाड़ा प्रदर्शन भी किया जाता है। दरअसल पूरे देश में जब सांप्रदायिक सौहाद्र का पर्व होली एक दूसरे को रंग लगाकर, हंसी ठिठोली करके मनाई जा रही होती उसी दरम्यान राजस्थान में उदयपुर चित्तौड़गढ के बीच मेनार गांव की गलियों में दीवाली की भांति गली मोहल्लों में मासूम बच्चे अपने पेरेंट्स से पटाखे व फूलझड़ियां दिलाने की डिमांड करते दिखते है। लेकिन धूलेंडी के दूसरे दिन मासूम बच्चे, युवा और बुजुर्ग पारंपरिक वेशभूषा ,पगड़ी, साफा, धोती कुर्ता पहने हुए और कंधे पर बंदूक लटकाए मिलते है। और बारूद से ही होली खेलते हैं। जिसे कहते है , मुगलशासक औरंगजेब की सेना को सुनियोजित तरीके से नेस्तनाबूद करने का पर्व जमराबीज। मेनारिया ब्राह्मणों की आबादी वाले मेनार में
बुधवार दोपहर बीच बाजार औंकारेश्वर चबूतरे पर अमल लेने की रस्म के साथ ही परवान चढ़ा शौर्य का पर्व रात में और अखाड़ा प्रदर्शन के साथ पूरा हुआ।
पर्व की शुरुआत रात नौ बजे रण बांकुरे ढोल की थाप से हुई और गांव से औंकारेश्वर चौक की ओर आने वाले पांच रास्तों पर मशालों की रोशनी के साथ मोर्चाबंदी की गई और मोर्चाबंदी खुलने का इशारा मिलते ही बंदूकों से हवाई फायर करते हुए दुश्मन पर हमला करने का जीवंत नजारा पेश किया और करीब दो घंटे तक जमकर आतिशबाजी की ।
दुश्मन के दांत खट्टे करने के बाद रणबांकुरे बने ग्रामीणों और देखने आए मेहमानों का भी अतिथि देवों भव की भावना से गांव के जैन समुदाय ने अबीर गुलाल से स्वागत किया!
इसके बाद बारी आई गांव की बसावट और बस्ती के बारे में जानने की। औंकारेश्वर चौक से ढोल एक साथ उतरे और बढ चले जमराघाटी की तरफ, सबसे आगे ढोल,मशालें और स्थानीय सुरक्षा जाप्ता , सुरक्षा में तैनात इन जवानों को फेरावत कहा जाता है , तो गांव में मुनादी करने वाला हरकारा भी सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हुए आगे बढे।
मेनार गांव की बसावट, बस्ती और अन्य जानकारी से जुड़े इतिहास का दमामी समाज के दो भाईयों ने वाचन और रिपीटेशन किया। इससे पहले महिलाओं ने होली को अर्घ्य देने की परंपरा भी निभाई!
जिस शाही अंदाज में रणबांकुरे औंकारेश्वर चौक से जमरा घाटी तक आए थे, उसी अंदाज और स्वाभिमान के साथ वापस औंकारेश्वर चौक की ओर बढे और उत्साह और जोश के साथ बच्चे, युवा और बड़े बुजुर्गों तक ने, ढोल की थाप पर तलवारों लाठियों के साथ गेरनृत्य किया तो देखने वाले भी हैरान रह गए,तो इसकै बाद लाठी के दोनों छोर पर बंधे हुए आग के गोलों को अपने शरीर के ईर्द गिर्द घुमाने और तलवारें घुमाने जैसा अखाड़ा प्रदर्शन देखकर राजस्थान व अन्य राज्यों से आए लोग अगले साल फिर मेनार आने की चर्चा करते दिखे ।
क्या है इतिहास क्यों, इस तरह का जश्न होता है : मेवाड़ पर महाराणा अमर सिंह का राज्य था। उस समय मेवाड़ की धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनियां थीं। इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी। इन छावनियों के आतंक से लोग दुखी थे।। जब मेनारवासियों को वल्लभनगर छावनी पर विजय का समाचार मिला तो गांव के वीरों की भुजाएं फड़क उठीं। गांव के वीर ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई। उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी। समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया गया। इस कूटनीति के तहत होली का त्यौहार छावनी वालों के साथ मनाना तय हुआ। होली और धुलंडी साथ-साथ मनाई गई।
यह दिन चैत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रम संवत 1657 की रात्रि को राजसी गैर का आयोजन किया गया। गैर देखने के लिए छावनी वालों को आमंत्रित किया गया। ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर बजाया गया। नंगी तलवारों, ढाल और हेनियों से गैर नृत्य शुरू हुआ। अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया। गांव के वीर छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े। रात भर भयंकर युद्ध चला। ओंकार महाराज के चबूतरे से शुरू हुई लड़ाई छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार भगाया गया। इस विजय के उपहार में तत्कालीन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी। मेनारवासियों से 52 हजार बीघा जमीन पर लगान नहीं वसूला गया। मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह प्रथम ने मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार को शौर्य के उपहार स्वरूप शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया, और यह परंपरा आज भी कायम है।