वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य

विशेष लेख
उदयपुर, 15 जून। प्राणी मात्र के हृदय में सोए भाव जब जागृत होते हैं तो वे वाणी या चेष्टाओं द्वारा अभिव्यक्ति पाते हैं।  जिस माध्यम से वे अभिव्यक्त होते हैं उसे कला की संज्ञा दी गई है। गाना बजाना नाचना प्रफुल्लित मन की स्वाभाविक क्रियाएं हैं, ये पशु पक्षी, कीट पतंगें,देव दानव ,मनुष्य सभी में पाई जाती है। इस स्वाभाविक कलाओं को जब कोई व्यवस्था दी जाती है तो उसे कला का नाम दिया जाता है। मन में उठी सुख और दुख की अनुभूतियां जब गीत बनकर गूंजने लगती है तो उन्हीं को राग का नाम दे दिया जाता है, ठीक इसी प्रकार जब चेष्टाओं द्वारा अनुभूतियां व्यक्त होती है तो उन्हें विविध मुद्राओं और अंगहारों का नाम दे दिया जाता है। गीत और नृत्य की सृष्टि इस प्रकार हुई है। भारतीय नृत्य कला एक धरोहर है जिसका विस्तार नाट्य वेद में हुआ है। उसी के आधार पर भरत ने नाट्य शास्त्र में नृत्य कला को विस्तार से समझाया है भारत के अलग-अलग प्रांतों में शास्त्रीय आधार पर जिन तत्वों को ग्रहण किया गया है उनमें शास्त्रीयता के साथ-साथ लोग तत्वों के मिश्रण से कुछ सशक्त नृत्य शैलियों का जन्म हुआ जिनको भरतनाट्यम ओडिसी ,मोहिनीअट्टम, कथकली ,मणिपुरी और कत्थक का नाम दिया गया। शास्त्रीय नृत्य सुर ताल का ऐसा दरिया है जिसका संगम आत्मा और परमात्मा से होता है।
लोक नृत्य की बात करें तो यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है, चराचर लोक इसे गाता बजाता ,नाचता है …यह स्वतंत्र होता है, समय काल के हिसाब से इसमें परिवर्तन होता रहता है जबकि शास्त्रीय नृत्य नियमों में बद्ध अनुशासन गूंथा सुर लय और ताल के साथ विभिन्न अंग संचलन एवं एवं पद संचलन के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। वर्तमान समय में शास्त्रीय नृत्य अपना स्वरूप और अस्तित्व खो  चुका है।लोगों में इसके प्रति उदासीनता है। बंधन में बद्ध ,भाषा की विविधता से समृद्ध ,सहज आत्म प्रकाशन के भाव से प्रकाशित, संस्कृति की आभा से मंडित ,माटी की मीठी गंध सा सुवासित शास्त्रीय नृत्य जो स्वयं के साथ-साथ परमात्मा को भी प्रसन्न करता है, आज अपनी गुमशुदगी पर सिसक रहा है।
आज के दौर में जो संगीत चल रहा है वह हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाता। शास्त्रीय नृत्य का ह््रास हो रहा है। लोग पाश्चात्य संगीत एवं संस्कृति की ओर दौड़ रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हमारी सरकारें भी हमारी प्राचीन संस्कृति एवं धरोहर के प्रति उदासीन है ,यहां तक कि विभिन्न शिक्षण संस्थाओं  में संगीत विषय तो खोल दिया गया है लेकिन विषय अध्यापक नहीं है। शास्त्रीय संगीत के जो जानकार हैं उन्हें प्रोत्साहन की बजाए उपेक्षा झेलनी पड़ती है ।हमारी धरोहर को संभालने की आवश्यकता है ।आवश्यकता है इस बात की कि हम शास्त्रीय संगीत ,नृत्य को बढ़ावा दें, प्रतियोगिताओं में ,विद्यालयों में इस शिक्षा को इसको शामिल करें  ताकि इसका संरक्षण एवम  हस्तांतरण हो सके। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हालत बहुत ही दयनीय है कोई भी शास्त्रीय को न तो समझता है ना इसकी चिंता करता है। यहां तक कि शिक्षकों के लिए आयोजित रंगोत्सव में से भी शास्त्रीय नृत्य को प्रतियोगिता से हटा दिया गया।
क्या शास्त्रीय नृत्य की आवश्यकता नहीं है ? क्या यह हमारी धरोहर नहीं है? क्या यह हमारी गौरवशाली परंपराओं का निर्वहन नहीं करता? क्या अगली पीढ़ी को हम यह कला हस्तांतरित नहीं करेंगे ? क्या यह कला विदेशियों के लिए ही बची है ? विडंबना है विदेशी लोग इसे सीख रहे हैं और हम लोग इस को अनदेखा कर रहे हैं आवश्यकता है, दरकार है ……संरक्षण की, हस्तांतरण की…..।

नीलम कटलाना
प्रतापगढ़,(राजस्थान)

By Udaipurviews

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