साहित्य मनुष्य की सर्जनात्मक चेतना का विकास केंद्रः प्रोफेसर नंद किशोर आचार्य
सृजनात्मकता के क्षितिज विषयक विभिन्न सत्रों का आयोजन
चित्तौड़गढ़ 12 नवम्बर। साहित्य एवं कलाओं की सार्थकता तभी हैं जब वे मनुष्य की सर्जनात्मक चेतना के विकास मे सहभागी हो सके। ये मानव स्वभाव के सृजन की प्रकिया है।
साहित्य समागम संगमन के उद्घाटन सत्र में प्रसिद्ध आलोचक और केंद्रीय हिंदी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत चौथे तार सप्तक के प्रसिद्ध कवि आलोचक नन्द किशोर आचार्य ने सृजनात्मकता के क्षितिज विषयक संगमन का विषय प्रवर्तन किया।
प्रोफेसर आचार्य ने अमेरिका और इंग्लैंड का उदाहरण देते हुए कहा कि स्वतंत्रता को जीवन मूल्य के रूप में स्वीकार करने करने वाला कभी दूसरों को गुलाम नहीं बनाता। तानाशाह कभी किसी भी राज्य के पतन के लिए उतना जिम्मेदार नहीं होता जितने उसकी विचारधारा का समर्थन करने वाले जिम्मेदार होते हैं। असहमति व्यक्त करने का भाव ही सोचने और कहने की स्वतंत्रता का परिचायक हैं।
कवि विनोद पदरज ने विषय को विस्तार देते हुए कहा कि किसी भी गलत कार्य मंे अपनी रचनाओ से हस्तक्षेप करना ही कवि होने के मायने हैं। नये कवि का हाथ समय की नब्ज़ पर होना चाहिए और उसमे भाषाई सम्प्रेषणीयता की सहजता ही रचना को नये आयाम दे सकती हैं। कवि सदाशिव श्रोत्रिय ने मुक्तिबोध का जिक्र करते हुए कविता में गंभीरता के महत्व को रेखांकित किया।
कवि अंबिकादत्त ने कहा कि कविता के रूप मे हम किसी के दर्द की दवा तो नहीं बन सकते पर हमदर्द होने का फ़र्ज तो निभा ही सकते हैं। वर्तमान की कविता उबाऊ होती जा रही हैं उसका सिर्फ एक ही कारण हैं कि उसमे संवेदनशीलता की कमी आई हैैं। अंतिम सत्र का समापन व्यक्तव्य देते हुए आलोचक जीवन सिंह ने साहित्य की भूमिका को परिवर्तन का वाहक बताते हुए कहा कि बदलाव कैसे हो इसका मार्ग साहित्य ही प्रशस्त करता हैं। उद्घाटन सत्र का संयोजन डॉ. हिमांशु पंड्या ने किया। अंतः में प्रश्नोत्तरी सत्र में वक्ताओ नेे श्रोताओं की जिज्ञासाओं का समाधान किया। विजन महाविद्यालय के संभागी अभिषेक तिवारी ने 30 सैंकड की रील लाईफ के दौर में चार घंटे तक चले साहित्य सृजन के इस आयोजन को अद्भूत अनुभव बताया।
पुर्वाेत्तर का दर्द छलक़ उठा
संगमम के उद्घाटन सत्र में बोलते हुए कवि दिनकर कुमार ने मार्मिकता के साथ पुर्वाेत्तर राज्यों विशेषकर असम के निवासियों का दर्द सामने रखा। गाँधी जी की हिन्द स्वराज मे पुर्वाेत्तर वासियों के लिए लिखी बातों का जिक्र करते हुए दिनकर ने कहा कि गाँधी जी ने तो असमवासियों से माफ़ी मांगकर अपनी लेखन गलती का पश्चाताप कर लिया पर आज उस घटना के 90 साल बाद भी पुर्वाेत्तर वासियो के प्रति शेष भारत की हीन भावना चिंतित करती हैं। पुर्वाेत्तर राज्यों की हिंसा नकारात्मकता का भाव ला सकती हैं पर देश को हमारी सांस्कृतिक समृिद्ध, जाति प्रथा और दहेज़ प्रथा विहिन व्यवस्था, साक्षरता मे आगे, कुपोषण से दूर और बालिकाओं का सम्मान और कन्या भ्रूण हत्या से मुक्त विशेषताएं देखनी चाहिए। दिनकर ने अपनी कविता की पंक्तिया ‘‘मै अपनी भावनाओं का अनुवाद बनना चाहता हूं’’ के साथ अंत किया।
रविवार को होंगे विभिन्न सत्र
कार्यक्रम के स्थानीय संयोजक डॉ. कनक जैन ने बताया कि रविवार को प्रातः 9 बजे से पहला और दोपहर 2 बजे द्वितीय सत्र आयोजित होगा। कार्यक्रम संयोजक विष्णु शर्मा के अनुसार उक्त दोनो सत्रों में प्रसिद्द सम्पादक ओम थानवी, कवि अनंत भटनागर, हेतु भारद्वाज, राजाराम भादू, चंद्र प्रकाश देवल, चरण सिंह पथिक, तराना परवीन, तसनीम ख़ान, वरिष्ठ रंगकर्मी भानु भारती, चित्रकार हेमंत द्विवेदी, युवा आलोचक रेणु व्यास, साहित्यकार सत्यनारायण व्यास, कथाकार अमरीक सिंह दीप, कवि अविनाश मिश्र, दिनकर कुमार और पंकज दीक्षित आदिवासी विमर्श के हस्ताक्षर हरिराम मीणा विभिन्न सत्रों में अपनी बात रखेंगे। अपनी बात रखेंगे। डॉ. माणिक ने बताया कि संगमन के सूत्रधार प्रियवंद समापन व्यक्तव्य देंगे।