काल गणना तथा भारतीय अध्यात्म एवम् ज्ञान विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन
रविन्द्र नाथ टैगोर और शुकदेव महाराज की प्रतिमा पर पुष्पांजलि कर मनाई जयंती
वेद पुराण आदि भारतीय शास्त्र स्वयं को जानने का श्रेष्ठ मार्ग – डॉ. अशोक विश्वामित्र ‘आचार्य’
ब्राह्मण ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप से एकाकार एवं ब्रह्म से साक्षात्कार का स्वरूप – डॉ. अशोक विश्वामित्र
उदयपुर 7 मई /काल गणना भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो हमें आंकड़ों और तथ्यों की सही जानकारी प्रदान करती है, जिससे हम समाज के विभिन्न पहलुओं को समझ सकते हैं।कालगणना में क्रमश: प्रहर, दिन-रात, पक्ष, अयन, संवत्सर, दिव्यवर्ष, मन्वन्तर, युग, कल्प और ब्रह्मा की गणना की जाती है। चक्रीय अवधारणा के अतर्गत ही हिन्दुओं ने काल को कल्प, मन्वंतर, युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) आदि में विभाजित किया जिनका आविर्भाव बार-बार होता है, जो जाकर पुन: लौटते हैं। कालगणना से हम आर्थिक, सामाजिक, और आर्थिक संदर्भों में बदलाव को समझ सकते हैं, उक्त विचार मंगलवार को जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय के प्रतापनगर स्थित कुलपति कार्यालय सभागार में ‘‘कालगणना तथा भारतीय अध्यात्म एवम् ज्ञान विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. एस.एस. सारंगदेवोत ने व्यक्त किए।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि टैगोर की विरासत में कविता, संगीत, साहित्य, कला, शिक्षा और सामाजिक सुधार शामिल हैं, जो भारत और दुनिया के सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ते हैं। बंगाल के बार्ड के नाम से प्रसिद्ध रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन और कार्य सौंदर्य, सत्य और मानवता की शाश्वत खोज का प्रतीक है। उनकी कलात्मक प्रतिभा, बौद्धिक गहराई और नैतिक दृष्टि उन्हें विश्व साहित्य और संस्कृति के इतिहास में एक महान व्यक्ति बनाती है।
संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. अशोक विश्वामित्र ‘ आचार्य ने भारतीय अध्यात्म के विषय में बताते हुए कहा कि वेद पुराण आदि स्वयं को जानने का श्रेष्ठ मार्ग है। उन्होंने आंतरिक अंतर्द्वंद्व से मुक्ति का मार्ग भी भारतीय शास्त्रों को ही बताया तथा कहा कि पुराण हमारे जीवन को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं तथा भारतीय शास्त्र जन्म-जन्मांतर की ग्रंथि को मुक्त करते हैं एवं भक्ति प्रधान होने के साथ ही जगतगुरु शंकराचार्य जी ने कहा कि ब्राह्मण ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप से एकाकार एवं ब्रह्म से साक्षात्कार का स्वरूप है। काल गणनाएँ विक्रम संवत से भी पूर्व युधिष्ठिर संवत था जिसकी गणनाएं भी सटीक थीं। कलियुग आने के बाद कलि संवत प्रारम्भ हुआ जो कि ३१०२ ईपू से आरम्भ होता है।
वेदव्यास के इन अयोनिज पुत्र ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण की कथा सुनाई थी। उन्होंने भगवान शिव, पार्वती को अमर कथा सुनाने की बात बताते हुए शुकदेव के जन्म की कथा सुनाई। आज शुकदेव महाराज की जन्म जयंती के पावन अवसर पर कहा की शुकदेव जी ब्रह्मज्ञानी थे और संसार से विरक्त थे और शरीर बोध में न रहते हुए आत्मबोध में रहते थे । शुकदेव के जन्म के बारे में बताया कि ये महर्षि वेद व्यास के अयोनिज पुत्र थे और यह बारह वर्ष तक माता के गर्भ में रहे। स्नान करती हुई महिलाएं अपनी अवस्था का ध्यान ना रखते हुए भी उनसे आशीर्वाद ले लिया करती थीं, क्योंकि वे यह जानती थीं कि भगवान शुकदेव के ह्रदय में कोई पाप नहीं है। भगवान श्री शुकदेव जी ने पहली बार भागवत शुकतीर्थ मे सुनाई, वर्तमान में यह स्थान जनपद मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश में है।
संचालन व आभार प्रदर्शन डॉ. यज्ञ आमेटा ने किया।
इस अवसर पर रजिस्ट्रार डॉ. तरुण श्रीमाली, परीक्षा नियंत्रक डॉ. पारस जैन, डॉ. सुभाष बोहरा,डॉ. आशीष नंदवाना, डॉ. चंद्रेश छतलानी, डॉ. प्रदीप सिंह शक्तावत, हेमंत साहू, डॉ. संजय चौधरी, डॉ. कुलशेखर व्यास,भगवतीलाल श्रीमाली, डॉ. गुणबाला आमेटा, डॉ. नीरू राठौड़, डॉ. शिल्पा कंठालिया, डॉ. ललित सालवी, जितेन्द्र सिंह चौहान,उमराव सिंह, लहरनाथ, विजयलक्ष्मी सोनी,विकास डाँगी,पंकज श्रीमाली,मोहन गुर्जर,कालू सिंह,राम सिंह आदि उपस्थित थे।