भगवान ऋषभदेव का मंदिर है खास, जहां जल घड़ी आधारित होती है सेवा पूजा

तीर्थंकर ऋषभदेव जयंती महोत्सव शुरू : उदयपुर जिले के भगवान ऋषभदेव को लेकर हिन्दू, जैन ही नहीं, बल्कि आदिवासियों में है बड़ी आस्था
-रंजीता शर्मा
उदयपुर। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जयंती महोत्सव इस वर्ष 16 मार्च से शुरू हो गया। केसरियाजी स्थित भगवान ऋषभदेव का मंदिर देश के खास मंदिरों में शुमार है, जहां बड़ी संख्या में हिन्दू, जैन तथा आदिवासी लोग अपने—अपने आराध्य देव के रूप में उनकी पूजा करते हैं। जैन धर्माम्बलंबियों के लिए यह प्रथम तीर्थंकर हैं तो हिन्दू धर्माम्बलंबियों के भगवान विष्णु के आठवें अवतार। जबकि क्षेत्रीय आदिवासियों के लिए उनके आराध्य काला बावजी हैं।
इस मंदिर की एक और खास विशेषता है, जिसके बारे में उन्हीं लोगों को पता है, जो यहां भगवान के दर्शन करने पहुंचते हैं। पिछले पंद्रह सौ सालों यहां सेवा पूजा का काम जल घड़ी के आधार पर होता आ रहा है।
आदिवासियों के काला बावजी
भगवान केसरियाजी में हिन्दू, जैन ही नहीं बल्कि यहां के आदिवासी भी उनमें आस्था रखते हैं। वह उन्हें काला बावजी या काला बाबा के रूप में मानते हैं। हिन्दू केसरियाजी को आठवें अवतार के रूप में भगवान ऋषभदेव के रूप में पूजा करते हैं, जबकि जैन धर्म के लिए पहले तीर्थंकर के रूप में उन्हें मानते हैं। यहां श्वेताम्बर ही नहीं, बल्कि दिगम्बर पूजा विधि से भगवान ऋभदेव की पूजा की जाती है। केसर से पूजा किए जाने से उन्हें केसरियाजी भी कहा जाता है। हिन्दू और जैन धर्म के लोगों से ज्यादा आस्था यहां के आदिवासियों में है, जो उन्हें काला बावजी, काला बाबा और केसरिया बाबा के रूप में पूजते हैं।


उदयपुर—अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर उदयपुर से लगभग साठ किलोमीटर दूर ऋषभदेव(पूर्व में धुलेव गांव) में कोयल नदी के किनारे भगवान केसरियाजी के मंदिर में घुसते ही बायीं ओर एक लकड़ी के खास बक्से में जल घड़ी रखी हुई है। जिसमें एक बड़े बर्तन में पानी भरा हुआ है और उसके उपर एक तांबें का कटोरा तैरता दिखाई देता है। उस कटोरे के बीचों—बीच एक छिद्र है और 24 मिनट में वह पूरा भर जाता है। उसके भरने पर वहां बैठा सेवक एक घंटी बजाकर समय का संदेश देता है और उसी के आधार पर मंदिर में केसरियाजी की पूजा होती है। चौबीस मिनट को यहां एक घड़ी माना जाता है और आठ घड़ी का एक प्रहर और चार प्रहर का एक दिन की संज्ञा दी जाती है। यहां के पुजारी बताते हैं कि मंदिरों में पूजा—अर्चना को लेकर भारतीय समयानुसार 45 मिनट तक का अंतर होता है लेकिन यहां जल घड़ी के आधार पर सैकड़ों सालों से पूजा जारी है।
जलघड़ी से कैसे होता है समय का समायोजन
देवस्थान विभाग के अधिकारी बताते हैं कि प्राचीन काल में भारतीयों ने दिन एवं रात को साठ भागों में बांट दिया था। जिसे एक घड़ी कहा जाता है। इसी तरह रात और दिन को चार भागों में बांटा गया, उसे प्रहर कहा जाता। उसी आधार पर जल घड़ी का निर्माण किया गया और समय मापक के रूप में मान्यता दी गई। भगवान ऋषभदेव के मंदिर में इसी आधार पर सेवा पूजा का काम होता है। रात के चार प्रहर खत्म होने के बाद जागरण से लेकर शयन तक की पूजा जल घड़ी के आधारित समय के अनुसार होती है। सर्दी और गर्मी के आधार पर एक—एक प्रहर का समय घटाते हुए हुए यहां सेवा पूजा होती है। इस गणना के आधार पर दिन और रात की गणना चौबीस घंटे की होती है।
सुबह दिगम्बर, बाद में श्वेताम्बर तथा शाम को जनेउ के साथ होती है पूजा
भगवान केसरिजी की पूजा अलग—अलग रूप में होती है। सुबह श्वेताम्बर भगवान ऋषभदेव के रूप में उनकी पूजा होती है। जिसमें विधि विधान भी वैसा ही होता है। जिसके बाद श्वेताम्बर तरीके से उनकी पूजा होती है। प्रतिमा को श्वेत वस्त्र धारण कराए जाते हैं। शाम को हिन्दू परम्परा के अनुसार उनकी पूजा जनेउधारी विष्णु भगवान के आठवें अवतार भगवान ऋषभदेव के रूप में होती है।
इस मन्दिर में मूलनायक प्रतिमा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की है, जो अतिप्राचीन है। यह मूलनायक प्रतिमा पद्मासन में है। इस मन्दिर में पूजा जैन धर्म के दिगम्बर मत व श्वेताम्बर मत दोनों से होती है। दोनों मतों से पूजा किये जाने हेतु अलग—अलग समय निर्धारित है। यह मंदिर न सिर्फ जैन धर्मावलंबियों, बल्कि वैष्णव हिंदुओं और मीणा व भील आदिवासियों व अन्य समुदायों द्वारा भी पूजा जाता है। ऋषभदेव को तीर्थयात्रियों द्वारा अत्यधिक मात्रा में केसर चढ़ाए जाने के कारण केसरियाजी कहा जाता है। यहां भगवान श्रीकृष्ण की भी आराधना दैनिक रूप से होती है।
एक आदिवासी को मिली थी मूल प्रतिमा
छिपे हैं कई रहस्य
भगवान केसरियाजी का मंदिर अपने साथ कई रहस्य समेटे है। यहां दो ऐसे कमरे भी हैं, जो कई सालों से बंद हैं। अदालत से लगी रोक के बाद वह अभी तक नहीं खोले गए। लोगों को मानना है कि यहां खजाना संभव है। पूर्व में जब यहां एक कमरे को खोला गया तब यहां सोने—चांदी के कई पुराने सिक्के मिले थे। यह मंदिर फिलहाल देवस्थान विभाग के अधीन है और यहां देवस्थान विभाग के नियुक्त पुजारी एवं सेवादार पूजा अर्चना और चाकरी कर रहे हैं।
बेहद खूबसूरत है यह मंदिर
पंद्रह सौ साल पहले निर्मित यह मंदिर बड़ा बेजोड़ है। मार्बल पत्थर से बने इस मंदिर का निर्माण उसी तरह का है जैसे रणकपुर के जैन मंदिर हैं। जिसे देखकर हर कोई चौक उठता है। मुख्य मंदिर में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा है, जबकि चारों और जैन धर्म के अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं विराजित हैं। इसके अलावा इस मंदिर प्रांगण में भगवान श्रीकृष्ण के अलावा महादेवजी के मंदिर भी मौजूद हैं। यहां दैनिक रूप से पूजा करने वाले भूपेश रावल ने बताया कि यहां जैन और हिन्दुओं के साथ आदिवासी भक्तों की भीड़ साल भर रहती है।

By Udaipurviews

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